कोमल निर्मल मन,लगे खरा है।
तप्त धरा जैसे,वृक्ष हरा है।
मिथ्या है जीवन,लड़ मत प्राणी।
कहना न किसी से,कड़वी वाणी।
काया की माया,मिली धरा है।
कोमल...
खुशियाँ जीवन की,करके हल्की।
कर्मों की गठरी,भरके छलकी।
भूल गए क्या सच,हृदय मरा है।
कोमल...
मिट जाता जीवन,करते अनबन।
मिलते आपस में,क्यों सब बेमन।
पड़ी काल छाया,जीव डरा है।
कोमल...
रिश्तों की डोरी,कसकर पकड़ो।
गाँठ नहीं अच्छी,जमकर जकड़ो।
मधुर वचन से ही,प्रेम झरा है।
कोमल..
©® अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
प्रेम की गंगा बहाते चलो -----
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteरिश्तों में गाँठ नहीं बस प्रेम छलकाओ
ReplyDeleteआपस में अनबन नहीं मन को मिलाओ
वाणी को थोड़ा सा मीठा कर लो
मन को भी थोड़ा बस निर्मल धर लो ।
सुंदर भावों से सजी सुंदर रचना ।
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 09-04-2021) को
" वोल्गा से गंगा" (चर्चा अंक- 4031) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार सखी।
Deleteवाह बहुत सुंदर सखी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर संदेश देती रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया अनीता जी।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteरिश्तों की डोरी,कसकर पकड़ो।
ReplyDeleteगाँठ नहीं अच्छी,जमकर जकड़ो।
मधुर वचन से ही,प्रेम झरा है।
कोमल..बहुत सुन्दर प्रेरक अभिव्यक्ति ।
हार्दिक आभार जिज्ञासा जी।
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