भोर को रूठा हुआ-सा
देख सूरज ढल गया।
मौन चंदा बादलों में
क्षीण होकर छुप गया।
याद की गठरी गिरी फिर
स्वप्न सिसके सब निकल।
मिट गया शृंगार जब
रोई दुल्हनिया विकल।
अर्थी उठी जब आस की
अंतर्मन पिघल गया।
मौन चंदा..
लौ मचलती दीप की फिर
पूछती है कहानी।
पीर कैसी मन बसी है
बह रहा नयन पानी।
छीनकर क्यों आज खुशियाँ
मीत मन का खो गया।
मौन चंदा..
वेदना फिर शोर करती
बुझ गया मन का दीप ।
अंतस उमड़ती लहर में
तट लगी यादें सीप
हाथ मेहंदी रो रही
वो चिता में जल गया।
मौन चंदा..
©® अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार
लौ मचलती दीप की फिर
ReplyDeleteपूछती है कहानी।
पीर कैसी मन बसी है
बह रहा नयन पानी।
छीनकर क्यों आज खुशियाँ
मीत मन का खो गया।
मौन चंदा..
..............सारी पंक्तियाँ अंतर्मन को भावुक कर गई। मानो जैसे कि कुछ सवाल हमसे भी पूछ रही हो। आपकी यह रचना प्रशंसनीय है। बेहतरीन।
हार्दिक आभार प्रकाश जी
Deleteवेदना फिर शोर करती
ReplyDeleteबुझ गया मन का दीप ।
अंतस उमड़ती लहर में
तट लगी यादें सीप
हाथ मेहंदी रो रही
वो चिता में जल गया।
मौन चंदा..---बहुत ही अच्छी रचना है...
हार्दिक आभार संदीप जी।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28 -5-21) को "शब्दों की पतवार थाम लहरों से लड़ता जाऊँगा" ( चर्चा - 4079) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसुन्दर भावमय रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रवीण जी
Deleteअद्भुत सखी ।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी !
बहुत शानदार संवेदनाओं के साथ।
बहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteअंतर्मन के भावों को शब्द दिए अपने ...
ReplyDeleteबहुत संवेदन शील भाव ...
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteयाद की गठरी गिरी फिर
ReplyDeleteस्वप्न सिसके सब निकल।
मिट गया शृंगार जब
रोई दुल्हनिया विकल।
अर्थी उठी जब आस की
अंतर्मन पिघल गया।
मौन चंदा..बहुत ही खूबसूरती से आपने मन की वेदना को शब्द दे दिया। सुंदर सृजन ।
हार्दिक आभार जिज्ञासा जी
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