Saturday, June 12, 2021

मानव सो रहा


चीखती धरणी पुकारे
जाग मानव सो रहा है।
काल को घर में बुलाने
बीज जहरी बो रहा है।

मेघ भी आँसू बहाते
देख वसुधा की तड़प को।
मौत से साँसें लड़े जब
रोकते कैसे झड़प को।
देख के कालाबजारी
मौन अम्बर रो रहा है।

सूखती है आस बैठी
आग आँसू की जलाती।
ढूँढती फिर राख सपने
पीर अंतस जो गलाती।
इस महामारी जळी से
आज बाणा रो रहा है।

चंचला तड़की कहीं पे
छूटता शृंगार जैसे।
माँग का सिंदूर फीका
बाँधती वट डोर कैसे।
आस सपनों की बँधी जो
टूट धागा खो रहा है।

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*

चित्र गूगल से साभार

16 comments:

  1. वाह,सुंदर रचना,आज के परिदृष्य का यथार्थवादी चित्रण ।

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    1. हार्दिक आभार जिज्ञासा जी

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  2. कोरोना काल की दारूण परिस्थितियों पर मर्मस्पर्शी सृजन ।

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    1. हार्दिक आभार मीना जी

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  3. मेघ भी आँसू बहाते
    देख वसुधा की तड़प को।
    मौत से साँसें लड़े जब
    रोकते कैसे झड़प को।
    देख के कालाबजारी
    मौन अम्बर रो रहा है।

    यथार्थ चित्रण .... मन के आक्रोश को शब्द मिले .

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  4. आपकी लिखी  रचना  सोमवार 14  जून   2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

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  5. माँग का सिंदूर फीका
    बाँधती वट डोर कैसे।
    आस सपनों की बँधी जो
    टूट धागा खो रहा है।

    –मार्मिक रचना..

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया दी।

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  6. बहुत सुंदर रचना आदरणीय !!
    सादर

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  7. वाह!सखी ,सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  8. मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रिय अनुराधा जी।
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    विषम परिस्थितियों के जाल है
    घिर रहा तूफां भँवर में पाल है
    ठहर जा,धैर्य रख ले कुछ प्रहर
    आ जुटाए चाँदनी से कुछ उजाले
    भोर की दस्तक से रात बेहाल है।
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  9. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना

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  10. आस सपनों की बँधी जो
    टूट धागा खो रहा है।....बहुत खूब

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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