Friday, July 13, 2018

सच्चा बचपन


मिट्टी से बना घर था
मिट्टी के खिलौने थे
झूठ मूठ की रसोई थी
पर पकवान अलबेले थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
जब मन चाहता था
डॉक्टर बन जाते
सबको दवा खिलाते थे
तो कभी मास्टर बन
सबको पाठ पढ़ाते थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
कभी क़िले फतह कर आते
तो कभी चोर पुलिस बन
गलियों में शोर मचाते
कभी पेड़ों पर चढ़ जाते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
पल में लड़ते और झगड़ते
पल में एक हो जाते
चुपके से जाकर हम
पड़ोसी की कुंडी बजा आते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
***अनुराधा चौहान***

21 comments:

  1. वाह शानदार, बचपन जाकर कभी नही लौटता अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ समर्पित करती हूं..…

    सतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना
    जिसके तले मस्ती मे झुमता एक भोला बचपन ।

    सपने थे सुहाने उस परी लोक की सैर के
    वो जादुई रंगीन परियां जो डोलती इधर उधर।

    मन उडता था आसमानों के पार कहीं दूर
    एक झूठा सच, धरती आसमान है मिलते दूर ।

    संसार छोटा सा लगता ख्याली घोडे का था सफर
    एक रात के बादशाह बनते रहे संवर संवर ।

    दादी की कहानियों मे नानी थी चांद के अंदर
    सच की नानी का चरखा ढूढते नाना के घर ।

    वो झूठ भी था सब तो कितना सच्चा था बचपन
    ख्वाबों के दयार पर एक मासूम सा बचपन।

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    1. वाह बहुत खूब शानदार रचना कुसुम जी सादर आभार

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  2. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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  3. वाह!!!!!प्रिय अनुराधा जी सच लिखा आपने ।भविष्य को अपनी नजर से देखता वो बचपन कहां चला गया ?मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गया ।वो नाटक कितने सच्चे लगते थे।बहुत भवसप्रशी लिखा आपने ।

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  4. वाह!!लाजवाब प्रस्तुति अनुराधा जी ।

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  5. खूबसूरत रचना 👌👌👌

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  6. वाह क्या खूब ....अनुराधा जी अप्रतिम मेरा क्या सब के जीवन का स्वर्ण काल ...बचपन ..🐒🐕🐩🐺🐅🐴🐄🐃🐂🐮🐎

    बचपन की मनभावन बतिया
    थोड़ा झगड़ा फिर गलबहिया
    पुनि ले गई उस आंगन मैं
    जहां सैकड़ों उड़ती तितलियाँ !
    नंगे पांव भरी दुपहरी
    कलुआ के बागों की कैरी
    उछल कूद घंटों बतियाना
    थोड़ी खुस पुस फिर हँस जाना !
    डाली पर चढ़ कर गिर जाना
    टसुए बहा नाक वह जाना
    पर कैरी का खाते जाना
    कलुआ का फिर मार भागना !
    गुड्डे गुडिया नकली रसोई
    पत्थर का साग पत्थर की कड़ाई
    मिट्टी की जब रोटी बनती
    सौंधी खुशबू मन को भरती !
    सारे व्यंजन झट बन जाते
    परोसे और खाये भी जाते
    कितना सुकून भरा वो पल था
    रोते पर झट चुप हो जाते !
    बाबूजी से घंटों बतियाते
    कथा कहानी सुनते जाते
    कब हूँ हूँ मैं नींद आ गई
    कब लुढ़क कर कब सो जाते !
    छेड़ दिया तुमने सखी क्या क्या
    हम तो बस खोते ही जाते
    बचपन अमि कलश सा छलका
    अतृप्त भाव रस पीते जाते !
    नमन

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    1. वाह बेहतरीन रचना इंदिरा जी सच्चा तो बचपन था न आज की चिंता न कल की फिकर
      तब सब कुछ अच्छा लगता था
      वो बचपन सच्चा लगता था
      सादर आभार

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  7. सच में, हमारे जैसा बचपन तो आजकल के बच्चों के नसीब में ही नहीं है।

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    1. सत्य कहा आपने हमारा बचपन आज के बच्चों के लिए सपना है सादर आभार

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  8. बहुत सुंदर
    सुंदर चित्रण

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  9. मिट्टी से बना घर था
    मिट्टी के खिलौने थे
    झूठ मूठ की रसोई थी
    पर पकवान अलबेले थे
    .........लाजवाब प्रस्तुति अनुराधा जी बचपन पर ...पर बचपन जाकर कभी नही लौटता :)

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    1. सत्य कहा आपने धन्यवाद आदरणीय

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  10. बहुत ही सुन्दर रचना

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