मिट्टी से बना घर था
मिट्टी के खिलौने थे
झूठ मूठ की रसोई थी
पर पकवान अलबेले थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
जब मन चाहता था
डॉक्टर बन जाते
सबको दवा खिलाते थे
तो कभी मास्टर बन
सबको पाठ पढ़ाते थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
कभी क़िले फतह कर आते
तो कभी चोर पुलिस बन
गलियों में शोर मचाते
कभी पेड़ों पर चढ़ जाते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
पल में लड़ते और झगड़ते
पल में एक हो जाते
चुपके से जाकर हम
पड़ोसी की कुंडी बजा आते
तब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
***अनुराधा चौहान***
वाह शानदार, बचपन जाकर कभी नही लौटता अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ समर्पित करती हूं..…
ReplyDeleteसतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना
जिसके तले मस्ती मे झुमता एक भोला बचपन ।
सपने थे सुहाने उस परी लोक की सैर के
वो जादुई रंगीन परियां जो डोलती इधर उधर।
मन उडता था आसमानों के पार कहीं दूर
एक झूठा सच, धरती आसमान है मिलते दूर ।
संसार छोटा सा लगता ख्याली घोडे का था सफर
एक रात के बादशाह बनते रहे संवर संवर ।
दादी की कहानियों मे नानी थी चांद के अंदर
सच की नानी का चरखा ढूढते नाना के घर ।
वो झूठ भी था सब तो कितना सच्चा था बचपन
ख्वाबों के दयार पर एक मासूम सा बचपन।
वाह बहुत खूब शानदार रचना कुसुम जी सादर आभार
Deleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteवाह!!!!!प्रिय अनुराधा जी सच लिखा आपने ।भविष्य को अपनी नजर से देखता वो बचपन कहां चला गया ?मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गया ।वो नाटक कितने सच्चे लगते थे।बहुत भवसप्रशी लिखा आपने ।
ReplyDeleteसादर आभार रेणू जी
Deleteसुस्वागतम !!!!!!!!!!!
Deleteवाह!!लाजवाब प्रस्तुति अनुराधा जी ।
ReplyDeleteसादर आभार शुभा जी
Deleteखूबसूरत रचना 👌👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद नीतू जी
Deleteवाह क्या खूब ....अनुराधा जी अप्रतिम मेरा क्या सब के जीवन का स्वर्ण काल ...बचपन ..🐒🐕🐩🐺🐅🐴🐄🐃🐂🐮🐎
ReplyDeleteबचपन की मनभावन बतिया
थोड़ा झगड़ा फिर गलबहिया
पुनि ले गई उस आंगन मैं
जहां सैकड़ों उड़ती तितलियाँ !
नंगे पांव भरी दुपहरी
कलुआ के बागों की कैरी
उछल कूद घंटों बतियाना
थोड़ी खुस पुस फिर हँस जाना !
डाली पर चढ़ कर गिर जाना
टसुए बहा नाक वह जाना
पर कैरी का खाते जाना
कलुआ का फिर मार भागना !
गुड्डे गुडिया नकली रसोई
पत्थर का साग पत्थर की कड़ाई
मिट्टी की जब रोटी बनती
सौंधी खुशबू मन को भरती !
सारे व्यंजन झट बन जाते
परोसे और खाये भी जाते
कितना सुकून भरा वो पल था
रोते पर झट चुप हो जाते !
बाबूजी से घंटों बतियाते
कथा कहानी सुनते जाते
कब हूँ हूँ मैं नींद आ गई
कब लुढ़क कर कब सो जाते !
छेड़ दिया तुमने सखी क्या क्या
हम तो बस खोते ही जाते
बचपन अमि कलश सा छलका
अतृप्त भाव रस पीते जाते !
नमन
वाह बेहतरीन रचना इंदिरा जी सच्चा तो बचपन था न आज की चिंता न कल की फिकर
Deleteतब सब कुछ अच्छा लगता था
वो बचपन सच्चा लगता था
सादर आभार
सच में, हमारे जैसा बचपन तो आजकल के बच्चों के नसीब में ही नहीं है।
ReplyDeleteसत्य कहा आपने हमारा बचपन आज के बच्चों के लिए सपना है सादर आभार
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसुंदर चित्रण
धन्यवाद आदरणीय 🙏
Deleteमिट्टी से बना घर था
ReplyDeleteमिट्टी के खिलौने थे
झूठ मूठ की रसोई थी
पर पकवान अलबेले थे
.........लाजवाब प्रस्तुति अनुराधा जी बचपन पर ...पर बचपन जाकर कभी नही लौटता :)
सत्य कहा आपने धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद दी
Delete