दिन बीता रात गहराई
मजबूरी की फिर बिछी चारपाई
चिंता की ओढ़कर चादर
आँखों में नमी है छुपाई
बच्चों के मन को बहलाते
बातों के फिर बताशे बनाकर
कल खिलाएंगे दूध-मलाई
मुश्किल से रोककर रुलाई
नींद आँखो से कोसो दूर
ग़रीबी को कोसते होकर मजबूर
होंठों पर मीठे लोरी के सुर
बच्चों को बहलाते फुसलाते
हिसाब की गठरी को
खोलते बांधते कटती रातें
कभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
कट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
दिन बीता रात गहराई
ReplyDeleteमजबूरी की फिर बिछी चारपाई
चिंता की ओढ़कर चादर
आँखों में नमी है छुपाई
....मार्मिक रचना आदरणीया
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
११ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहद आभार श्वेता जी
Deleteहिसाब की गठरी को
ReplyDeleteखोलते बांधते कटती रातें
कभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
कट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
बहुत खूब..... ,सखी
बहुत सुन्दर... हृदयस्पर्शी रचना...।
ReplyDeleteसहृदय आभार सखी
Deleteवाह!!सखी ,दिल की गहराईयों को छूने वाले भाव...,।
ReplyDeleteबेहद आभार सखी
Deleteबहुत ही मार्मिक रचना
ReplyDeleteधन्यवाद निधि जी
Deleteकभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
ReplyDeleteकट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
........मार्मिक हृदयस्पर्शी
आभार आदरणीय
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