Tuesday, March 5, 2019

ग़रीब की ज़िंदगी

दिन बीता रात गहराई
मजबूरी की फिर बिछी चारपाई
चिंता की ओढ़कर चादर
आँखों में नमी है छुपाई

बच्चों के मन को बहलाते
बातों के फिर बताशे बनाकर
कल खिलाएंगे दूध-मलाई
मुश्किल से रोककर रुलाई 

नींद आँखो से कोसो दूर
ग़रीबी को कोसते होकर मजबूर
होंठों पर मीठे लोरी के सुर
बच्चों को बहलाते फुसलाते

हिसाब की गठरी को
खोलते बांधते कटती रातें
कभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
कट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

15 comments:

  1. दिन बीता रात गहराई
    मजबूरी की फिर बिछी चारपाई
    चिंता की ओढ़कर चादर
    आँखों में नमी है छुपाई
    ....मार्मिक रचना आदरणीया

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय

      Delete
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    ११ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बेहद आभार श्वेता जी

      Delete
  3. हिसाब की गठरी को
    खोलते बांधते कटती रातें
    कभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
    कट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
    बहुत खूब..... ,सखी

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर... हृदयस्पर्शी रचना...।

    ReplyDelete
  5. वाह!!सखी ,दिल की गहराईयों को छूने वाले भाव...,।

    ReplyDelete
  6. बहुत ही मार्मिक रचना

    ReplyDelete
  7. कभी मजदूरी तो कभी मजबूरी में
    कट ही जाती गरीब की ज़िंदगी
    ........मार्मिक हृदयस्पर्शी

    ReplyDelete