दिन औ रातें पलछिन रहती
गिनती मीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।
रसभरे करे आज बहाने
मिसरी घोल,
फाँसों से चुभते हैं दिल में
कड़वे बोल।
छलता है मानव ही सबको
करके झोल,
छुपी हुई सच्चाई जैसे
कछुआ खोल।
पायल भी चुप रहती अभी न
गुनती गीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।
याद दिलाए पल-पल पुरवा
चली बहकर,
भँवरो की गुँजन को सहती
कली हँसकर।
अँधियारे क्यों डूबे ज़िंदगी
कभी डरकर,
उमड़-घुमड़ आशा की बदली
चली भरकर।
विश्वास नींव सदा टिकती है
सच्ची भीत,
पीर जलाये आज विरह फिर
बनती रीत।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
चित्र गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteफाँसों से चुभते हैं दिल में
ReplyDeleteकड़वे बोल।
छलता है मानव ही सबको
करके झोल,
छुपी हुई सच्चाई जैसे
कछुआ खोल।
लाजवाब भावाभिव्यक्ति अनुराधा जी ।
हार्दिक आभार सखी
Deleteबेहतरीन सृजन सखी ,सादर नमन
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteवाहह सखी!!!बहुत सुन्दर नवगीत👏👏👏👏👏
ReplyDeleteवाह सखी बहुत सुंदर।
ReplyDeleteसुंदर कोमल भाव लिए सरस नव गीत ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर सखी।
बहुत सुंदर सृजन,अनुराधा दी।
ReplyDeleteसुंदर कोमल भाव
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Delete