वो हैं गरीब जरूर
पर स्वाभिमान से जीते
करते अथक परिश्रम
भरने को पेट अपना
है चाह व्यंजनों की
पर सूखी रोटी से पेट भरते
न बिस्तर का कोई रोना
पत्थर ही है बिछोना
तकलीफें सदा घेरे
फिर भी कदम न रुकते
धूप हो या तेज बारिश
निरंतर यह कर्म करते
रात की आगोश में वो
रोेज सपने नए बुनते
वो ढोते गिट्टी गारा
तब बिल्डिंगें संवरती
हमारी सुविधाओं के
यही महल खड़े करते
करने भविष्य उज्ज्वल
दिन-रात एक करते
फिर भी गरीबी इनकी
कभी पीछा नहीं छोड़ती है
बारिश में छत टपकती
आंखों को नम करती
देखा आंखों ने सपना
इक मकान हो अपना
पर मंहगाई कमर तोड़े
पर जीना कैसे छोड़े
बच्चों का पेट भरने में
पूरी जिंदगी गुजरती
***अनुराधा चौहान***
पर स्वाभिमान से जीते
करते अथक परिश्रम
भरने को पेट अपना
है चाह व्यंजनों की
पर सूखी रोटी से पेट भरते
न बिस्तर का कोई रोना
पत्थर ही है बिछोना
तकलीफें सदा घेरे
फिर भी कदम न रुकते
धूप हो या तेज बारिश
निरंतर यह कर्म करते
रात की आगोश में वो
रोेज सपने नए बुनते
वो ढोते गिट्टी गारा
तब बिल्डिंगें संवरती
हमारी सुविधाओं के
यही महल खड़े करते
करने भविष्य उज्ज्वल
दिन-रात एक करते
फिर भी गरीबी इनकी
कभी पीछा नहीं छोड़ती है
बारिश में छत टपकती
आंखों को नम करती
देखा आंखों ने सपना
इक मकान हो अपना
पर मंहगाई कमर तोड़े
पर जीना कैसे छोड़े
बच्चों का पेट भरने में
पूरी जिंदगी गुजरती
***अनुराधा चौहान***
मार्मिक रचना 🙏
ReplyDeleteधन्यवाद दी
Deleteगरीबी में रहते हुए भी स्वाभिमान से जीने वाले ही जिंदगी को समझते हैं ...
ReplyDeleteअच्च्ची रचना है ...
धन्यवाद आदरणीय दिगंबर जी
Deleteस्वाभिमान का धन ही गरीबी में भी इन्सान को संघर्ष करने का हौसला देता है । बहुत अच्छा सृजन अनुराधा जी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मीना जी
Deleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteबहुत बहुत आभार आदरणीय
ReplyDeleteसटीक और यथार्थ रचना आपने सजीव वर्णन किया सखी। सच स्थिति बहुत दारुण हैं ।
ReplyDeleteसार्थक सारगर्भित रचना।
बहुत बहुत आभार सखी आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए
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