Monday, July 29, 2019

सिलवटें

सिलवटें ही सिलवटें हैं
ज़िंदगी की चादर पर
कितना भी झाड़ों,फटको
बिछाकर सीधा करो
कहीं न कहीं से कोई 
समस्या आ बैठती
निचोड़ती,सिकोड़ती
ज़िंदगी को झिंझोड़ती है
फिर सलवटों से भरकर
अस्त-व्यस्त ज़िंदगी फिर
ग़म को परे झटकती
आँसुओं में भीगती 
फिर आस में सूखती
फीके पड़ते रंगों से
अपना दर्द दिखाती
जिम्मेदारी के बोझ तले 
दबती और सिकुड़ती
घिस-घिस के महीन हो
मुश्किलों से लड़कर
अंततः झर से झर जाती
फिर सीधी-सपाट होकर पड़ी
बिना किसी हलचल
बिना कोई झंझट के
सारी परेशानियों से मुक्ति पा जाती
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Saturday, July 27, 2019

मेहंदी के रंग


टूटकर बिखरती मेहंदी,
फिर भी नहीं मिटती है।
छोड़ती मन छाप अपनी,
नाम पिया जब रचती है।

संस्कृति में रची-बसी,
सुहागिन हाथ में महके मेहंदी।
मेहंदी बिन त्यौहार अधूरे,
सावन की हर रीत में मेहंदी।

बहनों के प्रेम में रचती,
भाई की उम्र की दुआ मेहंदी।
पिया नाम रची जब हाथों ,
दुल्हन का सुहाग है मेहंदी।

नारी का स्नेह है मेहंदी,
प्रीत भरी इक आस है मेहंदी।
मेहंदी बिन श्रृंगार अधूरा,
खुशियाँ देती महके मेहंदी।

उत्सव की शान बढ़ाकर,
मेहंदी देती है संदेश यह गहरे।
अपने रंग में रंग लो सबको ,
हटा दो नयनों से घृणा के पहरे।
*अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

Thursday, July 25, 2019

पथ पर आगे बढ़ते जाना

पथ में बिछे हो शूल अगर,
पथिक तुम डर मत जाना।
अपनी मेहनत के दम पर,
पथ पर आगे बढ़ते जाना।

हौसलों का दामन थामकर,
हिम्मत की गठरी बाँधकर।
मुश्किल कोई राह न ‌रोके,
पथ पर आगे बढ़ते जाना।

कदम-कदम पर मिलेंगे धोखे ,
भ्रमित करेंगें, राहें रोकेंगे।
विश्वास का दीप जलाए रखना,
पथ पर आगे बढ़ते जाना।

चमकेगा किस्मत का तारा,
जीवन में होगा उजियारा।
मिलेगी एक दिन मंज़िल,
पथ पर आगे बढ़ते जाना
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 24, 2019

कारगिल विजय दिवस

कारगिल के विजय पताका
लहराई जब शान से
भारत माँ की आँख से बहते
आँसू भी सम्मान के
आओ शहीदों का नमन करें
जो जान पर अपनी खेले थे
दुश्मन थर-थर काँपे तब
जय भारत माता बोले थे
 सीना तान के जा टकराए
मातृभूमि के वीर जवान 
कारगिल युद्ध इतिहास बना
जग में गूँजा वीरों का नाम
 साहस के आगे वीरों के
दुश्मन न रुक पाया था
गोली,बम,धमाकों गूँजे
डरपोक पाक थर्राया था
कारगिल की चोटी गूँजी
वीर पुत्रों की ललकार से
एक पड़ा दस-दस पर भारी
विजय भरी जयकार से
पाकिस्तान को करनी का फल
देकर फिर सिंहनाद किया
बलिदान किया जीवन अपना
कारगिल को फतह किया
चिराग बुझे कई घरों के फिर
मंगलसूत्र बलिदान हुए
राखी लेकर बैठी बहना
भाई सदा को दूर हुए 
झुका शीश शहादत पर हम
शत् शत् बार नमन करें
वीरों के रणकौशल पर
भारतवर्ष सदा गर्व करे
***अनुराधा चौहान***

कारगिल विजय दिवस पर देश के वीर सपूतों को शत् शत् नमन

*चित्र गूगल से साभार*

Tuesday, July 23, 2019

सिगरेट की सौगात

रोगों से जब घिरे
तब आँखें खुली और आया याद
यह बीमारी नहीं
यह तो सिगरेट की है सौगात 
हीरोगिरी के चक्कर में
बनाते रहे धुंए के छल्ले
लगा मौत का रोग तो
मौत की हो गई बल्ले-बल्ले
धुंए की गिरफ्त में
जकड़कर रह गए
सिगरेट हाथों में पकड़कर रह गए
बड़े बुजुर्गो की सुनी नहीं
जब-तक बीमारी बनी नहीं
रहे तब-तक उड़ाते धुआँ
दांव पर लगाकर
खेलते रहे ज़िंदगी का जुआ 
मौत के कगार पर
ज़िंदगी को हारकर
थके हुए खड़े हो क्यों
शक्ल यूँ उतारकर
यह तोहफा मिला है सिगरेट का
प्यार से स्वीकार लो
सच्चाई समझ में आई हो
ज़िंदगी से निकाल बाहर करो
सिगरेट के कश लगाते रहे
हो जाओगे खुद धुआँ
सिगरेट रहेगी जीती फिर भी
तुम हो जाओगे फना
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 17, 2019

पहले जैसा अहसास

मैंने तुम्हारा बहुत इंतज़ार किया
अकेले प्यार भरे लम्हों को जिया
तुम्हारे अहसासों को न समझ सकी
इसलिए बढ़ती गई दिल में दूरी 
इस खत को मेरी ख्वाहिश समझ लेना
हो सके तो मुझे क्षमा कर देना
मानती हूँ मैं हर बार ग़लत थी
तुम्हारे अहसास को झुठलाती रही
मैं चोट देती रही तुम सहते रहे
फिर भी फ़िक्र करते और हँसते रहे
आज़ भी मिलने आओगे पता है मुझे
मेरी कही बातों को न ठुकराओगे पता है मुझे
आज़ जब तुम वापस आओगे
बहुत कुछ बदल जाएगा हमारे दरम्यान
मैंने छोड़ दिए थे अपने सारे अहं पीछे
पुराने अहसासों को फिर से लगी थी जीने
तुमसे बिछड़ने की सजा जो मिल रही थी 
टूटकर गिरे सपनों की किर्चें चुभने लगी थी
देखो मैंने घर वैसा ही सजा रखा है
जैसा तुम हमेशा से चाहते थे
यह देखो पलंग पर वही चादर है
हमारे प्यार के अहसासों से भरी हुई
हर बार तुम्हारे होने का अहसास देती
देखो खाली पलंग देख रो मत देना
मेरे होने का अहसास बना रहने देना
बालकनी में रजनीगंधा आज़ भी लगा है
वैसा ही है जैसा तुम लगाकर गए थे
हरा-भरा है मैंने आँसुओं से सींचा है
इस साल कलियाँ खिलने वाली हैं उसमें
सुनो इन बहते आँसुओं को पोंछ लो
आज़ सारे गिले-शिकवे भुला देना
बहुत दिनों से मायूसी छाई है घर में
खिड़कियाँ खोलकर जरा मुस्कुरा देना
हो सके तो पहले जैसा अहसास जगा लेना
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 15, 2019

यादों में किसकी भीगे रैना

आई रजनी सुन सजनी क्या सोचे चुप होके
मेघा छाए घिर-घिर आए 
चपला चमके शोर मचाए
पुरवा झूम-झूम लहराए
मदहोश बड़ा यह सुंदर समां 
झूम उठा है सारा जहां
बूँदें टपकी टिप-टिप टुप-टुप
क्यों बैठी हो इतनी गुप-चुप
कहती बारिश आ झूम ज़रा
बारिश में आकर भीग ज़रा
आई रजनी सुन सजनी क्या सोचे चुप होके
मन का मयूरा नाच उठा
सावन के गीत गाने लगा
रात सुहानी चुप-चुप ढले
आ चल चलें कहीं दूर चलें
क्या सोच रहे व्याकुल नैना
यादों में किसकी भीगे रैना
आई रजनी सुन सजनी क्या सोचे चुप होके
गरज रही सावन की बदली
क्या याद दिलाती पीहर की
दादुर,पपीहे के स्वर को सुन
सुन बूँदों की रुनझुन-रुनझुन
बदली से छुप-छुपकर झाँक रहा
चँदा भी तुझे निहार रहा
छोड़ के पीछे बातें बीती
आ बैठें करें कुछ बातें मीठी
आई रजनी सुन सजनी क्या सोचे चुप होके
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, July 12, 2019

संवाद से ज़हरीला मौन

संवाद से कहीं ज्यादा
जहरीला होता है मौन
मन में छुपी कड़वाहट
समझ पाया क्या कौन

गिले-शिकवे दूर हो जाते
संवाद जो दरमियान हो जाते
गलतफहमियों की दीवारें
ख़ामोशियाँ भला कैसे मिटाएँ

मेल-मिलाप प्रेम-संवाद से
रिश्तों की अहमियत बढ़ती
प्यार, तकरार, इकरार से ही
संबंधों की सुंदरता बढ़ती

मन में द्वेष जो रखते छुपाकर
मन ही मन सदा कष्ट हैं पाते
समझ नहीं पाते सच्चाई को
संवाद से जो रहते कतराते

अच्छा-बुरा जो भी है मन में
कहदो कभी न पालो मन में
साफ कहना खुश रहना सीखो
कड़वाहट से बचना सीखो

मन में कपट मुँह पर मीठा
इंसान ने यह गुर इंसान से सीखा
करते रहते भ्रम की दीवारें खड़ी
जब-तक चोट नहीं लगती तगड़ी

समय निकालो बैठो पास
कर लो मन की कुछ बातें ख़ास
अच्छा-बुरा जो भी हो मन में
मैल निकाल दो जो है अंतर्मन में
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 10, 2019

यादों की बदली

🌧
झड़ी लगी है सावन की
बहे नयनों से नीर नदी
कहाँ बसे हो जाकर परदेशी
मिलने की लगन लगी है

चपला करे पल-पल गर्जन
धरती लहराए धानी चूनर
दादुर,पपीहे कर उठे शोर
बागों में झूमकर नाचें मोर

निर्झर झर-झर राग सुनाते
धरती झूम-झूमकर नाचे
सावन के पड़ने लगे हैं झूले
रह-रहकर भीगी यादें झूले

विरह में तड़पे मन अकेला 
अंबर में घटाओं का मेला
बैरन निंदिया आँखों से दूर
सावन बरसे होके मजबूर

बीती जाए घड़ी यह सुहानी
रिमझिम बरसे बरखा रानी
चली हौले से पवन पुरवाई
सावन में यादों की बदली छाई
***अनुराधा चौहान***

सौभाग्य

 
सौभाग्य
से आती हैं
बेटियाँ घर के आँगन में
खुशियाँ वहीं हैं बसती
बेटियाँ जहाँ हैं चहकती
दुर्भाग्य
है यह उनका
जो कदर न इनकी जाने
बेटों के मोह में फंसे
बंद करते किस्मत के दरवाजे
सौभाग्य
बसे उस घर में
बहुएँ मुस्कुराए जिस घर में
भगवान का होता बास
जहाँ नारी का है सम्मान
दुर्भाग्य
पाँव पसारे
जहाँ लालच भरा हो मन में
दहेज की लालसा में
बेटी सुलगती हो घर में
सौभाग्य
अगर पाना है
सोच को बदल दे
न फर्क कर संतान में
स्त्री को महत्व दे
दुर्भाग्य
मिटे जीवन में
माँ-बाप की कर सेवा
भगवान यह धरती के
आर्शीवाद से मिले मेवा
***अनुराधा चौहान***

Friday, July 5, 2019

संस्कारों का दहन

युग बदला रीत बदली
इस दुनिया में प्रीत बदली
संस्कारों की झोली खाली
बंद अलमारी किताबों वाली
रीति-रिवाज दकियानूसी
होते संस्कार अब मशीनी
इंग्लिश बनी दिल की रानी
संबंधों की महत्ता भुला दी
चाचा,मामी शब्द पुराने लगते
अंकल,आंटी में सिमटे रिश्ते
बच्चे भी बेबी,पति-पत्नी भी बेबी
रिश्तों का यह गणित बड़ा हेवी
नमस्कार की जगह हाय,बाय,टाटा
हिंदी संस्कारों पर लगा चांटा
बातचीत के बोल सिमट गए
टुकड़ों में सब शब्द सिमट गए
मोहब्बत भी चार दिन वाली
नहीं बनी तो तलाक की बारी
पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता महत्व
भारतीय संस्कारों का करता दहन
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, July 4, 2019

किताब जैसी ज़िंदगी

रोज नयी इबारतें लिखते
रोज नया ख्व़ाब गढ़ते
सुख के पन्ने बार-बार सहेजते
पर दुःख के पन्ने पलट नहीं पाते
अनेकों तस्वीरें सहेजे
किताब जैसी है ज़िंदगी
जाने कितने पाठ पढ़ लिए
जाने कितने बाकी रह गए
ज़िंदगी की ऊहापोह में फंसे
कभी दुःख के कभी सुख के
कितने इम्तहान बाकी रह गए
पास-फेल के खेल में
फेल हुए तो अध्याय बंद 
फिर पढ़ी किताब की तरह
यादें अलमारी में बंद हो जाती
पास हुए तो ज़िंदगी आगे बढ़ती
ज़िंदगी की किताब में
फिर एक नया अध्याय जोड़ती
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 1, 2019

ढूँढती रही वजह

सूर्योदय भी नहीं हुआ
सोता रहा घर-परिवार
खनक उठी चूड़ियाँ
छनक उठी पायल
लगी बुहारने आँगन-ड्योढ़ी
उपले-कंडे लीपापोती
रंगोली से रंगी ड्योढ़ी
ऊषा की लालिमा छाई
रसोई से बघार की खुशबू आई
लगी जगाने सबको आकर
सिरहाने रख-रख चाय
चकरघिन्नी बनी फिरे
कभी इधर तो कभी उधर
किसी को खाना किसी को कपड़े
निपटाती बच्चों के लफड़े
सास की मालिश ससुर की सेवा
बदले में कुछ मिले न मेवा
दिन बीता रात आई
पर चेहरे पर सिकन न आई
बैठी थी बस भोजन लेकर
तभी कामचोर की मिली उपाधी
भर आँखों में बड़े-बड़े आँसू
ढूँढती रही वजह
मिलने वाले रोज़ नये नामों की
अपनी मेहनत के बदले
मिलने वाली इन तानों की
कामचोरी का तमगा हासिल कर
करने लगी सोने की तैयारी
फिर सुबह जल्दी उठकर
सबकी सेवा में हाजिर होकर
अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करने
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार