बंद पलकों में तेरा जब
रूप आकर झिलमिलाता।
नीर की फिर बूँद बनकर
नैन भीतर ठहर जाता।
प्रीत के अहसास मन को
सींचते हैं आस बनकर।
और अंकुर बन पनपते
भावना के बीज झरकर।
चित्र से आभास तेरा
स्पर्श आलिंगन कराता।
बंद पलकों में………
दूरियाँ यह कब मिटेगी
रात दिन ये सोचता मन।
साँझ ढलते पीर बढ़ती
बीत जाए न यह जीवन।
बादलों में चाँद छुपकर
रोज मन को है लुभाता।
बंद पलकों में………
सूखकर बिखरे कभी जो
फूल माला में जड़े थे।
प्रीत बन महके अभी वो
टूट धरती अब पड़े थे।
एक झोंका फिर हवा का
नींद से आकर जगाता।
बंद पलकों में………
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
अति सुन्दर.... भावपूर्ण ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना अनुराधा जी।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन सखी।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार सखी
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteवाह ... बहुत ही कमाल ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसूखकर बिखरे कभी जो
ReplyDeleteफूल माला में जड़े थे.......वाह
हार्दिक आभार आदरणीय
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