Wednesday, April 21, 2021

सोच का चक्रव्यूह


 जिस धरती ने हमें जीवन दिया
आज उस धरती पर 
हमारी निगेटिव सोच ने ही
वायरस को जन्म देकर
हमें
पॉजिटिव और निगेटिव
के चक्रव्यूह में फंसा दिया
और अब हम
अभिमन्यु की तरह
बाहर निकलने के
जी तोड़ प्रयास में लगे 
मगर रास्ता है कि हमें
नजर नहीं आता
चीखती रातें
सिसकियाँ भरते दिन
जलती आशाओं से
उठती धुएं की रेख
उखड़ती साँसों को थामें
मशीनों के अलार्म 
टेढ़ी-मेढ़ी भागती लाइनों में
ज़िंदगी की हलचलों को
ढूँढती
आँखों में नमी लिए 
निगेटिव विचारों से घिरी
हर पल ज़िंदगी सोचती 
क्या फिर पहले सी
लौट पाएगी हरियाली
जो जीवन और धरती
दोनों के लिए जरूरी थी
या यहीं से किसी और
मंज़िल का सफर शुरू होगा?
पल पल पॉजिटिव
सोच को खत्म करने की आदत से
मानवता आज खुद सहमी हैं
पॉजिटिव शब्द को सुनकर
सृष्टि की अनदेखी कर
आज हमने खुद को
 वहाँ खड़ा कर दिया है
जहाँ एक और कुआँ 
तो दूसरी और खाई नजर आती है।
©® अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार


Sunday, April 18, 2021

चीखती परछाइयाँ


रात की कालिख लपेटे
शून्यता कहे कहानी।
फिर बिखरती आस पूछे
पीर यह कैसी पुरानी।

गूँजती अब मौन चीखें
आह का क्रंदन सुनाती।
हर गली में मौत से डर
श्वास बस छुपती छुपाती।
है समय की चाल टेढ़ी
बात कब किसी ने मानी।
रात की कालिख लपेटे
शून्यता कहे कहानी।

सुलगते शमशान कहते
सत्य तेरा पहचान ले।
काठ की गठरी सुलगती
फिर नहीं कोई नाम ले।
चीखती परछाइयों की
पीर कब गई पहचानी।
रात की कालिख लपेटे
शून्यता कहे कहानी।


काल की बोले कुठारी
प्यास जीवन से बुझेगी।
गिन रहा अम्बर सितारे
कभी यह गणना रुकेगी।
कर रही है मौत आहट
चाल नहीं यह अनजानी।
रात की कालिख लपेटे
शून्यता कहे कहानी।

©®अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

Sunday, April 4, 2021

सत्य यही है


 कोमल निर्मल मन,लगे खरा है।
तप्त धरा जैसे,वृक्ष हरा है।

मिथ्या है जीवन,लड़ मत प्राणी।
कहना न किसी से,कड़वी वाणी।
काया की माया,मिली धरा है।
कोमल...

खुशियाँ जीवन की,करके हल्की।
कर्मों की गठरी,भरके छलकी।
भूल गए क्या सच,हृदय मरा है।
कोमल...

मिट जाता जीवन,करते अनबन।
मिलते आपस में,क्यों सब बेमन।
पड़ी काल छाया,जीव डरा है।
कोमल...

रिश्तों की डोरी,कसकर पकड़ो।
गाँठ नहीं अच्छी,जमकर जकड़ो।
मधुर वचन से ही,प्रेम झरा है।
कोमल..
©® अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार