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Friday, October 18, 2019

दफ़न हो जाते सपने

काँधे पर अनगिनत
फरमाइशों का बोझ
चिंता में तिल-तिल जलते
और धुआँ होती ख्वाहिशें
दफ़न हो जाते सपने 
दिन-रात यही सोच-सोचकर
कैसे हो सबके पूरे सपने
पिता के लिए नई लाठी
माँ का टूटा चश्मा
गुड़िया बैठी दरवाजे पर
आज आएगा नया बस्ता
एक नया पैबंद झलक उठा
मुस्काती पत्नी की साड़ी में
दिन भर भीगता रहा यह सोच
छतरी लूँगा अबकी बारिश में
खत्म हो गई मुन्ने की दवाई
कमर तोड़ रही यह महंगाई
हर बार होती यही कोशिश
इस बार होंगे सपने पूरे
समस्या रहती वहीं के वहीं
मिलता नहीं समाधान कोई
अरमान हर बार जल जाते 
छुप जाते आँसू भी धुएं में
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

8 comments:

  1. मार्मिक यथार्थ सृजन

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  2. मार्मिक यथार्थ की गूंज इस रचना में सुनाई पड़ती है! बहुत सुन्दर

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  3. मर्मस्पर्शी सृजन अनुराधा जी ।

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  4. धन्यवाद आदरणीय

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  5. मानना पड़ेगा आपकी लेखनी को...शब्द आपके किन्तु बातें सबके मन की...बहुत बहुत बधाई|

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    Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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