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Friday, June 29, 2018

नहीं भूल सकती

(चित्र गूगल से साभार)
आज फिर तेरी यादों का
समंदर लहराने लगा
दिल में सोया हुआ
वह खौफनाक मंजर
फिर जगाने लगा
यह भयानक हवाएं
यह काली घटाएं
देख दर्द का सैलाब
मेरी आंखों से आने लगा
नहीं भूल पाती में
तेरी आंखों के आंसू
वो तड़प वो पीड़ा
जिन्हें तूने झेला
भयावह वह मंजर
थी नियति भी सहमी
रूह तेरे जिस्म से
अब निकलने लगी थी
थे बेबस और लाचार
हम सिसकने लगे थे
द्रवित होकर आसमां भी
अब रोने लगा था
तुझे लेने आगोश में
थी हवाएं भी आतुर
नहीं भूल सकती
भयावह वह मंजर
यह दुःख का समंदर
जो बसा हुआ है
मेरे मन के अंदर
नहीं भूल सकती में
नहीं भूल सकती
***अनुराधा चौहान***

Thursday, June 28, 2018

आखिर क्या खोया है

वो न जाने कहां खोया है
समझ नहीं पाती
जो मेने खोया है
तलाशती रहती
हर घड़ी हर जगह
जो खोया है
उसको ढूंढती
हर घड़ी निगाहें मेरी
हर किसी से पूछती
क्या तुमने पाया है
जो मेने खोया है
पर आखिर जो खोया है
उसे रिश्तों में टटोलती
घर की चारदीवारी में
खोजती फिर रही
बैचेन सी आंखें
सहसा एक एहसास
मन के कोने में
आवाज देता है
तूने जो खोया है
वो यहीं है और कहीं नहीं है
वो तेरे घर में बसा है
घर के कण कण में बसा है
हर रुप,हर रंग में बसा है
प्यार है उसका नाम
जिसे तू खोज रही है
***अनुराधा चौहान***

वो दिन दूर नहीं

हवाओं को रोकती
यह ऊंचीअट्टालिकाएं
सांप सी फैली
सड़कों का जाल
जिंदगी को है डस रहीं
हवाओं में जहर घोलती
गाड़ियां हैं दौड़ रहीं
नित नई बीमारी को
वो जन्म दे रही
रसायनिक मिलावट से
दूषित होते खाद्य पदार्थ भी
पर्यावरण को स्वच्छ बनाते
पेड़ निरंतर कट रहे
नदी नाले पाट कर
उन पर बंगलें बन रहे
अब भी न चेता इंसान
तो वो दिन दूर नहीं
स्वच्छ हवा और पानी को
जब पल पल तरसे
यह जीवन
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Tuesday, June 26, 2018

करुण रुदन

 मेघों क्यों इतना
करुण रुदन है
क्या तेरे सीने
 में दफन है
विरह की गम में
मे रो रही हूं
तुझको किससे
बिछड़ने का ग़म है
क्या नारी की व्यथा से
हो रहे इतना व्यथित
या प्रकृति के सौंदर्य
छिनते देख द्रवित हो
क्यों इतना
अश्रु बहा रहे हो
प्रर्यावरण का
बिगड़ता संतुलन
क्या तुमको करता
है पीड़ित
या इंसानियत
को मरते देख
हो रहा है
करुण रुदन है
  ***अनुराधा***

जिंदगी तो बसती है गांव में

(चित्र गूगल से संगृहीत)
जिंदगी तो 
बसती है गांँव में
कच्चे मकानों में
खेत खलिहानों में
अमराई के बाग में
गांँव की चौपालों में
बुजुर्गो के किस्सों में
ढ़ेर सारे रिश्तों में
आंँगन में पड़ी 
चारपाई में
दादी-नानी की 
कहानियों में
नीम की 
शीतल छांँव में
मिट्टी की 
सौंधी खुशबू में
पेड़ों पर
झूलते झूलों में
मां के 
मिट्टी के चूल्हे में
हाथों से बने माखन में
तालाबों में
तैरते बच्चों में
पनिहारिन की गगरी में
पायल की मधुर
 छम-छम में
जिंदगी तो बसती है
केवल गांव में
शहरों की
मशीन सी जिंदगी
किसी को किसी
फिक्र नहीं
अपने कार्यों में
लगें हैं सब
अपने लिए ही वक्त़ नहीं
जिंदगी तो बसती है
केवल गांँव में
***अनुराधा चौहान***

Sunday, June 24, 2018

बूढ़ी आंखें


(चित्र गूगल से संगृहीत)
बूढ़ी आँखों में आँसू लिए
झुर्रियों से भरा चेहरा
मन के कोने में दबी आशा
पगडंडियों को निहारती
हर आहट बैचेन करती
काट रही है दिन और रैन
शायद अब आए बच्चे मेरे
राह देखते व्याकुल नयन
चारपाई पर बैठकर
हरपल यही सोचती
सूनी आँखें गलियों में
बच्चों का बचपन खोजती
बीत रहे साल दर साल
बड़े जतन से था पाला
पूरी की थी हर ख्वाहिश
बुढ़ापे का बनेंगे सहारा
सोचकर भेजा था परदेश
वो घर से बाहर क्या निकले
बाहर की दुनिया में खो गए
अपनी गृहस्थी बसा कर वो
मां-बाप की दुनिया भूल गए
अगर वो वापस न आए तो
सोचकर मन घबरा जाए
बूढ़ी आँखों से छलक कर
आँसू गालों पर आ जाएं
  ***अनुराधा चौहान***

Thursday, June 21, 2018

यादें अतीत की

 
    तन्हाई में जब कभी मैं
     अतीत को याद करती हूं
      स्मृतियां बालपन की
      मन पर छाने लगती हैं
      मां बाप के घर बिताए
      जो लम्हे उन्हें याद कर
      नमी आंखों की पोंछती हूं
      तन्हाई में जब भी मैं
      अतीत को याद करती हूं
      स्मृतियां भाई-बहनों की
      मन पर छाने लगती हैं
      मीठी तकरार रुठना मनाना
      उन साथ खुबसूरत लम्हों की याद
      मन में एक तड़प सी पैदा करते हैं
      तन्हाई में जब भी मैं
      अतीत को याद करती हूं
     स्मृतियां उन रिश्तों की
     जो असमय साथ छोड़ गए
     मन को तड़पाने लगती हैं
     उनके साथ बीता हुआ
     बचपन का हर लम्हा याद कर
     नमी आंखों की पोंछती हूं
     तन्हाई में जब भी मैं
     अतीत को याद करती हूं
     वैसे तो रिश्तों से घिरीं हूं
     उन में ही मेरी जान बसी है
    फिर भी खाली-खाली लगता
    मां बाप बिना मेरा जीवन
        ***अनुराधा चौहान***

Sunday, June 17, 2018

विरह की अग्नि

सोचा भी न था कभी
जिंदगी में ऐसा भी
वक्त आएगा
सब कुछ तबाह कर
हमारी खुशियां
साथ ले जाएगा
खेलते कूदते बड़े हुए थे
जिसके साथ
वो भाई हमसे बिछड़ जाएगा
जिंदगी मिली है
तो जीना पड़ेगा
दर्द तेरी जुदाई का
सहना भी पड़ेगा
किस लम्हे में तुझको भूलूं
किस लम्हे में न याद करूं
भाई बता में तेरे बिन
कैसे खुश रहने का प्रयास करुं
बंद मुट्ठी के जैसे थे हम
तुम क्यों मुट्ठी खोल गए
मां बाप सहित हम सबको
विरह की अग्नि में
जलता छोड़ गए
 ***अनुराधा चौहान***
           
     
        

Tuesday, June 12, 2018

निशब्द हूँ मैं


निशब्द हूँ मैं 
शब्द नहीं है मेरे पास
देश में फैले भ्रष्टाचार से
धोखा फरेब के जाल से
  गरीबों के उत्पीड़न से
  किसानों की बदहाली से
निशब्द हूँ मैं 
शब्द नहीं है मेरे पास
   बेरोजगारी से त्रस्त लोग
 कुपोषण से मरते 
बच्चों को देख
 चंद रुपयों में बिकते लोग
  इंसान को डसते 
इंसानों को देख 
निशब्द हूँ मैं 
शब्द नहीं है मेरे पास
   समाज में फैली
 अराजकता से
     झूठ और बेईमानी से
   नित बढ़ती मंहगाई से
    गरीबों की लाचारी से
निशब्द हूँ मैं 
शब्द नहीं है मेरे पास
   नारी के उत्पीड़न से
  उनकी मर्यादा के हनन से
  उन मासूम सिसकियों से
  पुरुषों की हैवानियत से
निशब्द हूँ मैं 
शब्द नहीं है मेरे पास
       ***अनुराधा चौहान*** 
 चित्र गूगल से साभार 

Sunday, June 10, 2018

रिश्तों का वृक्ष

    रिश्तों से लदा हुआ
     एक वृक्ष था खड़ा
     प्रेम की धूप से था
       दिन पर दिन फल रहा
       अपनत्व के भाव से
       हर कोई था सींच रहा
       रिश्तों से लदा हुआ
       एक वृक्ष था खड़ा
       बह चली अचानक
       नफरत की आँधियाँ
       आँधियों के जोर से
       हर रिश्ता उड़ चला
       वृक्ष था हरा भरा
       ठूंठ बनकर रह गया
       मतलब के मौसम में
       रिश्ते सभी बिखर गए
       शाख़ से जुदा हो कर
       वो न जानें किधर गए
       प्रेम की धूप भी अब
       बदले की आग बन गई
       अपनत्व का भाव भी
       अब जुदा होने लगा
        वृक्ष था हरा भरा
        ठूंठ बनकर रह गया
        ***अनुराधा चौहान***

Friday, June 8, 2018

धूप छांव सी जिंदगी

 धूप छांव सी है यह जिंदगी।
 कहीं गरीबी से त्रस्त
  कहीं मंहगाई से पस्त
  कहीं महलों में मस्त हैं जिंदगी
  धूप छांव सी है यह जिंदगी।
  कहीं भाईचारे को डसती 
  कहीं इंसानियत है मरती
  कहीं झूठे दिखावे की जिंदगी
 धूप छांव सी है यह जिंदगी।
 कहीं स्वीमिंगपूल में तैरती
 कहीं नदियों को गंदा करती
 कहीं बूंद बूंद को तरसे है जिंदगी
 धूप छांव सी है यह जिंदगी।
 कहीं जातिवाद के लिए मरती
 कहीं आरक्षण के लिए लड़ती
कहीं देश पर कुर्बान होती जिंदगी
धूप छांव सी है यह जिंदगी।
       ***अनुराधा***

Wednesday, June 6, 2018

आखिर कब तक

 
(चित्र गूगल से साभार )

      अब न  डरेंगे अब न रुकेंगे
        इन जुल्म ओर अत्याचारों से
         कब तक घर में छुपे रहेंगे
         इन कलयुगी शैतानों से...
                सब चुप सहती रही हमेशा
                 उसका यह परिणाम मिला
                मसला रोंदा फिर फेंक दिया
                 इन कलयुगी शैतानों ने
        नारी ने इन्हें जन्म दिया
        नारी से ही संसार बसा
        नारी को ही वस्तु समझा
        इन कलयुगी शैतानों ने
                  इन्होने अपनी हवस की खातिर
                  रिश्तों को भी कलुषित किया
                  सारी मर्यादा ताक पर रख दीं
                  इन कलयुगी शैतानों ने
        नारी के जीवन का प्रभु
       यह कैसा अभिशाप लिखा
       अब नन्ही परियां भी नहीं बचती
       इन कलयुगी शैतानों से
                     नारी कमजोर नहीं है शक्ति है
                      अब दुनिया को दिखाना है
                   कब तक सहमी सहमी रहोगी
                      इन कलयुगी शैतानों से
                            ***अनुराधा***

Monday, June 4, 2018

यह कल की ही बात थी


           यह कल की ही तो बात थी
            जब मेरे हाथों में
            मेहंदी लगी थी
            कर सोलह श्रृंगार
            मैं दुल्हन बनी थी
            बारात लेकर आए थे
            तुम मेरे अंगना
            खिड़की से मेरा छुप कर
            तुमको देखना
           यह कल की ही तो बात थी
            खुशियां हीं खुशियां थीं
            सब जम कर नाच रहे थे
            चुपके से हम तुमको
            तुम हमको देख रहे थे
            यह कल की ही तो बात थी
            मांग में सिंदूर भर कर
            किया था तुमने वादा
            तुम मेरी अर्धांगिनी हो
            प्रिये पूरा करूंगा हर वादा
            यह कल की ही तो बात थी
            विदा होकर में ससुराल आई
            तुमको पाकर खुशी से फूली न समाई
            हंसी खुशी बीते थे दिन चार
            तुम्हारे जाने की घड़ी आ गई
             यह कल की ही तो बात थी
            आंखों में आंसू छुपाकर
             तुमसे लिया था वादा
             तुम जल्दी वापस आओगे
             तुमने भी किया था वादा
             यह कल की ही तो बात थी
             तुम्हारे सपनों में खोई हुई थी
             कि किसी ने मुझे आवाज दी
             तुम्हारे शहीद होने की
             मुझको खबर मिली
               एक पल में सब कुछ बिखर गया
                    अभी तो दुनियाँ बसाई थी         
            यह कल की ही तो बात थी
            अभी तो हाथों की मेहंदी भी न छूटी थी
            अभी तो तुमने मेरी मांग भरी थी   
             सब एक झटके में उजड़ गया
             मंगलसूत्र के मोती बिखर गए
         जो देखे थे साथ सपने
           सपने बन कर ही रह गए
            पर शहीद की विधवा हूं मैं
            यह गौरव मन में भर गया
          ***अनुराधा चौहान***
      नमन है बारम्बार देश के शहीदों को     


      

Saturday, June 2, 2018

समय की बलिहारी


(चित्र गूगल से संगृहीत)
जैसे-जैसे समय बीतता जाता अपने साथ कुछ न कुछ ले जाता हमारे रिश्ते हमारी नई पीढ़ी के संस्कार सब इस बदलते वक्त की भेंट चढ़ गए। कुछ घरों में इस तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं
   यह कैसी बलिहारी समय की
   यह कैसी बलिहारी
   घर में मां बाप भूखे सोते
   बच्चे बाहर मौज करें
   इतनी पीड़ा दे
  अपने जनक को
  कैसे उनको चैन पड़े
  फेसबुक पर ज्ञान बिखेरते
  फादर डे,मदर डे
  सेलिब्रेट करें
  घर पर दो घड़ी वक्त नहीं
  बैठ कर उनसे बात करें
  कैसे तुमको पाल-पोस कर
  उन्होंने इतना बड़ा किया
  अपनी शानो-शौकत की खातिर
  तुमने उन्हें भुला दिया
  कल तुम भी मां बाप बनोगे
  इस बात का ध्यान करो
  इतिहास खुद को दोहराता है
  इसलिए उनका सम्मान करो
      ***अनुराधा चौहान***

Friday, June 1, 2018

सूखे खेत

(चित्र गूगल से संगृहीत)
अब तो जम कर बरसो मेघ
सूखे खेत
चटकती धरती
सूख रहें हैं पेड़
अब तो जम कर बरसो मेघ
जल बिन कैसे
उगे अनाज
जीना होता
अब दुस्वार
और बंजर होते खेत
अब तो जम कर बरसो मेघ
धूप से जलता
बदन हमारा
तुम बिन होता
नहीं अब गुजारा
सिसकते बच्चे भूखे पेट
अब तो जम कर बरसो मेघ
आसमां को
तकते नैना
तुम बिन अब
पड़े न चैना
बोले तुझसे नीर भरे दो नैन
अब तो जम कर बरसो मेघ
तुम बरसे तो
सुख बरसेगा
सुखमय होगा जीवन मेरा
अब तो बरसा दो तुम नेह
अब तो जम कर बरसो मेघ
***अनुराधा चौहान***