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Monday, December 30, 2019

शीतलहर (दोहे)

शीतलहर को झेलते, बैठे सिगड़ी ताप।
ठंडी से दुविधा बड़ी,राग रहे आलाप।

सूरज रूठा सा लगे,बैठा बादल ओट।
शीतलहर के कोप से, पहने सबने कोट।

चुभती है ठंडी हवा,शीतल चुभती भोर।
बैठी गुदड़ी ओढ़ के,माई सूरज ओर।

ठंडी भीनी धूप में, बैठे मिलकर संग।
मफलर कानों पे चढ़ा ,डाटे जर्सी अंग।

कुहरा झाँके द्वार से,हवा उड़ाती होश।
मोटे ताजे लोग भी, बैठे खोकर जोश।

छत के ऊपर बैठ के,सेंक रहे हैं धूप।
टोपा मोजा को पहन,अजब बनाए रूप।

गाजर का हलवा बना,सर्दी की शुरुआत।
चाय पकौड़े हाथ में, करते हैं सब बात।

भट्टी में आलू भुने,हाथ लिए है नोन।
बैठे अलाव तापते,दादा जी हैं मौन।

घनी पूस की रात में,नन्हा काँपे जोर।
टपके कच्ची झोपड़ी,घन बरसे घनघोर।

सिर पे अम्बर है खुला,थर-थर काँपे हाथ।
कथरी गुदड़ी ओढ़ के,सोता है फुटपाथ।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

दिन जीवन के

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

रुकता नहीं समय का पहिया,
संग संग चलना इसके।
बैठ गए किसी के रोके,
फिर पीछे रह जाना है।
मूक जानवर भी यह जाने,
साँझ ढले घर आना है।
ग्वाल बाल भी गायों को ले,
लौट घरों को आते हैं।

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

खुद पर हो सदा विश्वास,
जीवन में आराम कहाँ।
भाग्य से मिलता यह जीवन,
इंसा खुद लाचार बना।
कट जाता हैं धीरे-धीरे,
कठिन भरा यह जीवन भी।
दुख-सुख धूप छाँव के जैसै,
हर पल आते-जाते हैं।

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, December 28, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--4

(19)
*बहना*
बहना अपने भ्रात से,माँगे ऐसा दान।
नारी के सम्मान का,रखना होगा मान।
रखना होगा मान,सदा देवी सम पूजा।
उसकी हो पहचान,नहीं कुछ माँगू  दूजा।
कहती अनु सुन भ्रात,यही है मेरा कहना।
नारी की रख लाज,यही बस माँगे बहना ‌।
(20)
सखियाँ सुमन सुगंध सी,सुंदर सरल स्वभाव।
कोमल काया की कली,करुणा के ले भाव। 
करुणा के ले भाव,सखी की समझे पीड़ा।
करती दूर विषाद,उठाती सुख का बीड़ा।
कहती अनु यह देख, खुशी से भीगी अखियाँ।
देती दुख में साथ,भली होती हैं सखियाँ।
(21)
*कुनबा*
जोड़ा कुनबा प्रीत से,खिलते देखे फूल।
देखी अकूट संपदा,सब कुछ बैठे भूल।
सब कुछ बैठे भूल,भूले  पिता अरु माता।
छोड़ा सबका साथ,रखा बस छल से नाता।
कहती अनु यह देख,बैर को जिसने तोड़ा।
अपनों को रख साथ,खुशी से नाता जोड़ा।
(22)
*पीहर*
प्यारा पीहर छोड़ के,गोरी चली विदेश।
आँखों में सपने सजे,मन में भारी क्लेश
मन में भारी क्लेश,चली वो डरती डरती।
पीहर छूटा आज,मना वो कैसे करती
कहती अनु यह देख,सभी को लगता न्यारा।
भूलें कैसे प्यार,पिता का घर है प्यारा।
(23)
*सैनिक*
सैनिक तपता धूप में,झेले बारिश मार।
बर्फीली चोटी खड़ा,माने कभी न हार।
माने कभी न हार,तभी हम सुख से रहते।
भारत का यह मान,नहीं संकट से डरते।
कहती अनु यह देख, यही दिनचर्या दैनिक।
सहते दिल पे वार,डटे रहते हैं सैनिक।
(24)
*पनघट*
पनघट से राधा चली, कान्हा पकड़े हाथ।
 माखन मटकी फोड़ते,ग्वाले देते साथ,
ग्वाले देते साथ, करे सब सीनाजोरी।
माखन लिपटा हाथ, यशोदा पकड़ी चोरी।
कहती अनु यह देख, लगाकर बैठा जमघट।
नटखट है चितचोर, बजाता मुरली पनघट।
***अनुराधा चौहान***

Friday, December 27, 2019

चला दिसम्बर

स्वागत करने नववर्ष का
सजग हो सभी उठी दिशाएं
कुछ खट्टी-मीठी यादे देकर
चला दिसम्बर दे सर्द हवाएं
नेतृत्व करने मानव मन का
दो हजार बीस सजग हो रहा
वक़्त उड़ा पँछी के जैसा
कोहरे की चादर में लिपटा
कदम बढ़ाता सूरज होले
जैसे धरती से कुछ बोले
कुछ लम्हे फाँसों से चुभते
मन के जाते घाव दुखाते
उम्मीद मन में नयी जगी
साल नयी हो खुशियों भरी
गुनगुनी धूप ठिठुरी रातें
दिसम्बर देके चला सौगातें
वर्ष एक जीवन से छीन
जाते-जाते कहता जाए
उम्र के पँछी के उड़ने से पहले
जीवन से सुंदर लम्हे चुन
नवीन वर्ष खड़ा फैलाएं बाहें
बीस वर्ष के युवा जैसा
आँखों में नए स्वप्न जगाए
झर न जाए जीवन के मोती
जगा आशा की दीप ज्योति
मन में कोई क्लेश नहीं हो
कपट भरा परिवेश नहीं हो
जीवन में हो सुख भरी बातें
मिटे कलह सुखद हो रातें
सुख भरी हो सबकी दुनिया
नववर्ष ले आए खुशियाँ
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, December 25, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--3

(13)
उपवन
उजड़ा उपवन देख के,मानव हुआ निराश।
अपने हाथों से किया,उसने आज विनाश।
उसने आज विनाश‌,यही वह समझ न पाया।
करता बंटाधार,मिटा तरुवर की छाया।
कहती अनु यह देख,धरा पर मौसम बिगड़ा।
सोचे अब क्यों आज,हरित जो उपवन उजड़ा।

(14)
जीवन
दुविधा जीवन में छुपी,छीन रही आराम।
कैसे चिंता से बचें,करते हैं सब काम।
करते हैैं सब काम,कभी आराम न पाते।
भूले दिन औ रात,रहे मन को भटकाते।
कहती अनु सुन बात,सभी को मिलती सुविधा।
खुशियाँ मिले अपार,फिर नहीं रहती दुविधा।

(15)
कविता
कविता कहती सुन कलम,कैसा कलियुग आज।
कोयल से कागा भला,कहती कड़वे राज।
कहती कड़वे राज,कर्म सब कलुषित करते।
कलियुग रचे विधान,तभी दुख से सब डरते।
कहती अनु यह देख,क्लेश की बहती सरिता।
कलियुग छीने प्रेम,यही कहती है कविता।

(16)
ममता
सोया आँचल के तले,मिलती ममता छाँव।
पैरों के बल क्या चले,भूले अपना गाँव।
भूले अपना गाँव,कभी थे आँचल झूले।
शहरी आभा देख,बची ममता की भूले।
कहती अनु सुन बात,बचाले सुख जो खोया।
ममता देती छाँव,जगाले मन जो सोया।

(17)
बाबुल
बेटी को करके विदा,बाबुल रोए आज।
आँखों से आँसू बहें, कैसे रीति-रिवाज।
कैसे रीति-रिवाज,हुआ सूना घर अँगना।
बेटी साजन साथ,पहन के चलदी कँगना।
कहती अनु दुख देख,दुखी हो दादी लेटी।
बाबा पोंछे नैन,चली जो घर से बेटी।

(18)
भैया
भैया की है लाडली,बाबुल की है जान।
बेटी रखती है सदा, दो-दो कुल की मान।
दो-दो कुल की मान,सदा सम्मान बढ़ाया।
ऊँचा करके नाम,जहाँ में नाम कमाया।
कहती अनु यह देख, झूमते बाबुल मैया।
बेटी है अनमोल, खुशी से कहते भैया।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, December 21, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--2

(7)
*बिंदी*
पायल बिंदी है सजी,चली नवेली नार।
आँखों में सपने सजा,ढूँढें राजकुमार।
ढूँढें राजकुमार, मिला न राम के जैसा।
जो भी पकड़े साथ,लगे वो रावण ऐसा।
कहती अनु सुन बात,नहीं कर मन तू घायल।
अपनों के चल साथ,तभी बजती है पायल।
(8)
*डोली*
डोली बैठी नववधू,चली आज ससुराल।
आँखों में कजरा सजा,बेंदा चमके भाल।
बेंदा चमके भाल,कमर में गुच्छा पेटी।
सर पे चूनर लाल,सजी दुलहन सी बेटी।
कहती अनु यह देख,कभी थी चंचल भोली।
चलदी साजन द्वार,सँवरकर बैठी डोली।
(9)
*आँचल*
छोटी सी गुड़िया चली,आँगन वाड़ी आज,
आँचल में माँ के छुपी,करती थी वो राज।
करती थी वो राज,लली छोटी सी गुड़िया।
पढ़ने जाती आज,कभी थी नटखट पुड़िया।
कहती अनु सुन आज,नहीं है बेटी खोटी।
देगी दुख में साथ,अभी है कितनी छोटी।
(10)
*कजरा*
कजरा डाले गूजरी,देखो सजती आज।
आँखों में उसके छुपा,कोई गहरा राज।
कोई गहरा राज,बता दे तू सुकुमारी।
खोले परदे आज,नहीं कोमल बेचारी।
कहती अनु सुन बात,सजा बालों में गजरा।
करती दिल पे राज,लगा आँखों में कजरा।
(11)
*चूड़ी*
चटकी चूड़ी देख के,झुमका भूला साज।
माथे की बेंदी मिटी,बिछुआ रोया आज।
बिछुआ रोया आज,नहीं अब सजन मिलेंगे।
भूली पायल गीत,किसे अब मीत कहेंगे।
कहती अनु यह देख,अधर में साँसे अटकी।
साजन हुए शहीद,विरह में चूड़ी चटकी।
(12)
*झुमका*
झुमका झूमें कान में,बेंदा चमके भाल।
पायल छनके पैर में,कहती दिल का हाल।
कहती दिल का हाल,चलो बागों में झूले।
सावन बरसे आज,सखी कजरी भी भूले।
कहती अनु यह देख,लगाए गोरी ठुमका।
इतराती है नार,सजा कानों में झुमका।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 17, 2019

अनु की कुण्डलियाँ-1

(1)
वेणी
महकी वेणी मोगरा,जूड़े सजती आज।
शरमाती गोरी चली,पायल देती साज।
पायल देती साज,पहन के कँगना हाथों।
भाँवर पड़ती आज,रही ले फेरे सातों।
कहती अनु सुन आज,खुशी से दुल्हन चहकी  ।
लाली मुख पे  लाल,लटों में वेणी महकी।
(2) 
कुमकुम
गोरी बैठी पालकी,चली पिया के देस।
आँखों में कजरा लगा,पहने चूनर वेस।
पहने चूनर वेस,माँग का चमका टीका,
गजरा महका बाल,लगाए कुमकुम टीका।
छोटी थी कल देख,लली थी सुनती लोरी
चलदी वो ससुराल,विदा होकर के गोरी।
(3)
काजल
चूड़ी से बिँदिया कहे,तू क्यों देती साज।
तेरी खन खन में बसे, नारी मन का राज।
नारी मन का राज।लगाती काजल बिँदिया। 
सजती जब ये नार,चुराती हैं यह निँदिया।
कहती अनु सुन आज,बनाओ हलवा पूड़ी।
साजन आए द्वार, खनक-खनकें है चूड़ी।
(4)
गजरा
महके बालों में लगे,गजरा जूही आज।
झुमके कानों में सजे,कँगना चूड़ी साज।
कँगना चूड़ी साज,पहनती चूनर सारी।
कर सोलह श्रृंगार,लग रही सुंदर नारी।
कहती अनु यह देख,खुशी से सखियाँ चहके।
लटका लट में आज,जुही का गजरा महके।
(5)
पायल
छनकी पायल पाँव में,देखे छुपके मीत।
शरमाती दुलहन चली,सजना गाए गीत।
सजना गाए गीत,देख दुलहन भरमाती।
होंठों पे मुसकान, झुका नयना शरमाती।
कहती अनु यह देख,सखी की चूड़ी खनकी।
चलदी साजन साथ,छनक छन पायल छनकी।
(6)
कंगन
 झुमका कंगन साथ में ,छेड़े ऐसा राग।
आँगन में गोरी नचे,खेले साजन फाग।
खेले साजन फाग,चली देखो बलखाती।
रंगों की बरसात,सजन से नेह दिखाती।
कहती अनु यह देख,लगा खुशियों का ठुमका।
नाचे गोरी आज,पहन के कंगन झुमका।

***अनुराधा चौहान***

Monday, December 16, 2019

टूटे पँखों को लेकर

टूटे पँखो को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूट के बिखरे सपने जो,
इस दिल पे आघात लगा।
 बनके साथी छोड़े साथ,
वो साथी बेकार लगा।
रोकर जीवन अब न गुजरे,
दुख को परे झटकना हो,
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखों को लेकर के,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

काँटे हैं चुभने के लिए,
कदम रोक मत लेना तुम।
अँधियारे भरे जीवन में,
दीपक आस जलाना तुम
मिल जाए सच्चा साथी,
सुख से दामन भरना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखो को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

सन्नाटे में मन का शोर ,
सोए दर्द जगाता है।
रातों में छुप-छुपकर चँदा,
सच्चाई कह जाता है।
उम्मीद की किरण बहुत है ,
चाहे प्रकाश झीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखों को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, December 12, 2019

अलाव

अलाव की गर्मी से
राहत पाने की आशा में
ठिठुरता बचपन
पिता की आगोश में छुपा
धरती के बिछौने पर
खुले अम्बर के नीचे
एक ही चादर में लिपटा
शीतलहर से बचने का
अथक प्रयास करता
मौसम पे भला किसी का
क्या चला है जोर
भोर की धूप संग ठिठुरते
घर-आँगन चौबारे में 
अलाव के सामने
हाथों को सेंकते 
लोगों की टोली बैठ जाती
सुबह की चाय की चुस्की के साथ
गपशप करते
 बातों से सर्दी के अहसास
बांटने में लगे रहते
बढ़ती ठंड का बखान कर 
मौसम का हाल
बताने के साथ 
शुरू हो जाते अपनी दिनचर्या में
गुजरते दिन की तरह
गुजर रहे वर्ष के सफ़र का
लेकर खट्टा-मीठा चिट्ठा
एक और साल
फिर बीत चला है
दिसम्बर विदाई को
सजने लगा है 
नया साल ले आ रहा
घने कुहासे की सौगात
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, December 6, 2019

कानन(दोहे)

जंगल अब कंक्रीट के,लील रहे हैं गाँव ।
बूढ़े बरगद कट रहे,कहाँ मिले अब  छाँव ।।

गंध वाटिका खो रही,जल संकट से आज।
बिन जल मानव का नहीं,होगा कोई काज।।

कुसुमित कानन बीच में,मधुर प्रिया मुस्कान ।
कर जाती थी मौन ही,प्रियतम का प्रिय गान।।

कानन में क्रीड़ा करें,बेटी-चिड़िया संग।
वे भी मर्माहत हुए,हुआ मनुज बेढंग।।

कानन हरियाली घटी,सूखे सरिता ताल।
पर्यावरण विषाक्त है,नाच रहा सिर  काल।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 3, 2019

छली-सी खड़ी

 
छली-सी खड़ी थी
अपनों से ठगी थी
जुएँ की लालसा की
बली चढ़ी थी।
बचाने द्रोपदी को
कैसे तुम दौड़ पड़े
रिश्ते बचाने 
हर मोड़ पे खड़े थे
द्रोपदी से भाई का
हर फर्ज निभाया
भरे दरबार में
उसका चीर बढ़ाया।
कहते हैं सब 
तुम दयालु बड़े हो
मगर हे कृष्णा
कहाँ छुपे खड़े हो
नहीं है सुरक्षित
बेटियाँ अब जमी पे
बचा नहीं सको तो
उठा लो धरती से
नहीं है ज़रूरत
अब बहन बेटियों की
न माँ चाहिए
न ममता अब माँ की
चाहिए तो अब सिर्फ
घृणित इरादों की पूर्ति
नहीं दर्द न ममता
अब कोमल कली से
निकलना मुश्किल
मासूमों का गली से
दिखता है केवल अब
तन स्त्रियों का
सरे राह हो रहा
चीर हरण बेटियों का
जिंदा जला
फूँक देते हैं उनको
नहीं कोई इंसान
जो बचाए निर्बल को
है लकड़ी के तिनके
नहीं कोई रक्षक
बने सब धरा पे
नारी तन के यह भक्षक
हरपल यह लुटती
कहीं किसी गली में
अपनों के ही बीच
जा रही छली ये
हे माधव
हे गोविन्द हे त्रिपुरारी
बचा न सको
तो मिटा दो तुम नारी
न रहेगी जननी
न बढ़ेगी सृष्टि
बिगड़ेंगे हालात
बंजर धरा के
अँधेरा बढ़ेगा
रोशनी को मिटा के
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित ✍️

Sunday, November 24, 2019

दर्द चीख कर मौन हो गया

दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।
दर-बदर की ठोकर खाता,
फिरता है मारा-मारा।

निशब्द है भंवरों की गुँजन,
दर्द तड़पें मन के अंदर।
मुरझाए पौधे पे फूल,
चुभते हैं हृदय में शूल।

जाने अब कभी चमकेगा,
मेरी भाग्य का सितारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

फागुन के रंग हैं फीके,
बाग में कोयल न कूके।
अमुवा की डाल पे झूले ,
बिन तेरे अब हैं रीते।

आँखों से सूखे अब आँसू,
हृदय तड़पता आवारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।

पुरवाई अब हौले-हौले,
यादों के देती झोंके।
बैठ कब से खोल झरोखे,
शायद चंदा कुछ बोले।

पीपल पात शोर कर रहे,
जैसे कोई बंजारा।
दर्द चीख कर मौन हो गया,
हृदय हो गया बेचारा।।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से पाओ

Saturday, November 23, 2019

जीवन की साँझ


साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
महकती थी सुमन से बगिया
 बंजर-सी वो हो गई
प्रेम के अहसास जो छिटके
ओस की तरह गुम हुए
अंतिम पथ पे आज अकेले
बाट जोहते रह गए
दर्द भरी आँधियों में यादें
गुबार बीच गुम हुई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
इस बीते समय की धूल में
यादें भी गुम हो गईं
खुरदरी आज हथेलियों में
दिखती थी कभी ज़िंदगी 
लिपटकर इन बाहों में  कभी
राहत तुम्हें मिलती थी
आस के आसमान पे बैठ
राह ताकती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
आज झुरझुरी इस काया से
मोह-ममता छूट गई
सुनकर तोतले बोल तेरे
झूम उठे थे खुशी से
तुम जब चले उँगली पकड़कर 
आँखो में सपने पले
उन्हीं सपनों की बिखरी किर्चे
मैं समेटती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई।
साँझ भी ढ़ल रही है अब तो,
आशा धूमिल हो गई।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, November 20, 2019

सृष्टि की संचालिकाएं

उतरी धरा पर सोचती मैं हूँ कौन
देख इन्हें सबकी खुशियाँ मुरझाई
देखकर रहते सबके चेहरे मौन
बेटी हूँ घर की नहीं कोई पराई

बोझ मत समझो इन बेटियों को
इनसे ही सृष्टि,सृजन चल रहा है
यह धन यह वैभव सब इन्हीं से
इनमें भी लक्ष्मी का अंश जुड़ा है

परिवार पे कोई मुश्किल है आती
यही दुर्गा और काली बन जाती
सरस्वती का सदा स्नेह है इन पर
तभी बच्चों को संस्कार सिखाती

विविध रूप है इन बेटियों के
नहीं कोई बंधन इन्हें बाँध पाया
माँ-बहन और बेटी पत्नी
हर रिश्ता इन्होंने बखूबी निभाया

सिर्फ बेटी बनकर ही नहीं जीती
रिश्तों के लिए यह अश्रु घूँट पीतीं
पर,पुरुष ने न अपना पौरुष छोड़ा
पल-पल स्त्रियों के हृदय को तोड़ा

सदा उन्हें देखा भोग की नज़र से
पर दिल से कभी सम्मान न दिया
बेटी की चाहत कम है अभी-भी
उनको उचित स्थान मिला न अभी-भी 

न फेंकों न मारो न तोड़ो इन्हें
खिलने दो नाज़ुक-सी कलियाँ इन्हें
जगा लो इंसानियत अपने अंदर
अनमोल धरोहर यह बचालो इन्हें

अगर भू से मिटा बेटियों का अस्तित्व
सृष्टि भी मिट जाएगी हो असंतुलित
जीवन व्याप्त है इनकी कोख में
यही सृष्टि की हैं संचालिकाएं

क्यों काँपती नहीं है रूह तुम्हारी
जला देते ज़िंदा मासूम सुकुमारी
नारी से जन्म ले,उसे तड़पाते
जिस्मों को नोचते हाथ नहीं काँपते

***अनुराधा चौहान***

कब पलट जाए किस्मत

नशा जवानी का सिर चढ़ता है
घर समाज तब कहांँ दिखता है
मौज-मजे में झूमते हैं फिर लोग
लगा बैठते फिर नशे का रोग

दीन-हीन रहते कदमों के नीचे
चूस-चूस कर लहू उनका पीते
मर जाती है करूणा इनकी
चढ़ी दिमाग पे धन की गर्मी

झूठ की दुनिया लगे मनभावन
सच्चाई का दूर से पांव लागन
तारीफों के पहन सिर पे ताज
छोड़ बैठते हैं सब काम-काज

अनजान बने दुनिया की रीत से
लक्ष्मी टिकती है कर्म पुनीत से
जब-जब होती धर्म की हानी
तब प्रभू रोकते यह मनमानी

मानो न मानो यही सत्य है
धरती ही स्वर्ग और यही नरक है
कब चल जाए प्रभू का लाठी
सोना बन  जाए लकड़ी की काठी

दुनिया की यह कड़वी सच्चाई
हर किसी को समझ नहीं आई
वक़्त रहते भविष्य नहीं देखा
कब मिट जाती भाग्य की रेखा

कल तक ताज सजा देखा था
आज वो शख्स अकेला बैठा था
पलट दिया किस्मत ने पांसा
आज उसी के हाथ दिया कासा

ऊपर वाले के घर में देर सही
पाप की मिलती सजा, अंधेर नहीं
पाप-पुण्य का रख लेखा-जोखा
समय रहते कर काम कुछ चोखा।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, November 18, 2019

अंतिम पड़ाव

जिम्मेदारी के बोझ तले
ख्व़ाहिशें दम तोड गईं
बढ़ती रहीं चेहरे पे सिलवटें 
निशानी उम्र की दे गईं

दो से शुरू किया सफ़र
संग साथी इस संसार में
बच्चों से ही रही बहार
जीवन के इस आँगन में

ज़रूरतें पूरी करने में कब
ज़िंदगी हाथों से फिसल गिरी
लेखा-जोखा पढ़ने में कब
खुशियों सूखे पत्ते सी झरी

पलटते रहतें हैं बैठ फिर
यादों की पुस्तक के पन्ने
भूल गए वो भी बड़े होकर
कल-तक जो बच्चे थे नन्हें

यही दस्तूर ज़िंदगी का
बड़े विकट इसके झमेले
रिश्तों के संग जीने वाला
रिश्तों के बीच अकेले

श्वेत बाल सिलवटें लिए
जीवन के अंतिम छोर खड़े
कोई उम्मीद नहीं दिल में लिए
जब अपने ही हैं दूर खड़े

अंतिम पड़ाव ज़िंदगी का
हर एक जीवन की सच्चाई
इंसान रह जाता अकेला
सहता अपनों की जुदाई

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, November 15, 2019

मौन से संवाद

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद
स्वप्न नये गढ़ता रहा
खुद के दरमियान

छूकर गुजरती हवा
राग कुछ छेड़ती
शब्द की खामोशी को‌
छेड़कर तोड़ती
सिमटी बूँद ओस की 
कली से कर बात

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद

मन कुछ उदास-सा है
शब्द आज मौन हैं‌
मतलबी जग में कहाँ
किसी का कौन है
सहम-सहम चली हवा
हैं अलग अंदाज

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद

ढल रही है साँझ अब
रात काली घनी
यादें बिखर रही हैं
टूटे कड़ी-कड़ी
चीर रहे सन्नाटे को
दर्द भरें यह जज़्बात

मौन ही करता रहा
मौन से संवाद।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, November 10, 2019

कदमों की आहट

तेरे आने की आहट से
हवाओं में सरगम गूँज उठी
बालों की लट झूमी लहराई
हौले से गालों को चूम गई

पवन झकोरे झूम-झूम के
संदेशे तेरे सुनाने लगी
मैं पगली भी झूम-झूम के
चूनर हवा में लहराने लगी

शीतल मंद बयार बहकर
तन को मेरे सहलाने लगी
झूम रही पेड़ों की डाली
पुरवा राग सुनाने लगी

धड़क-धड़के करे दिल मेरा
कानों के झुमके झूम उठे
खनक-खनकें हाथों से कंगना
मन के भावों को बोल गए

छमक-छमक के छमक उठी
पैजनियाँ मेरे पांव की
माथे की बिंदिया दमक उठी
तेरे कदमों की ज्यों आहट सुनी।
***अनुराधा चौहान*** 
चित्र गूगल से साभार

वास्तविकता ज़िंदगी की

वास्तविकता को परे रख
दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले
भर लेते हैं जीवन में
काँटे हमेशा चुभने वाले

यथार्थ के पथ पर काँटे सही
पर मार्ग उम्मीदों भरा 
खुशी के पल पग-पग मिले
जीवन में पग-पग संघर्ष भरा

दिखावे की कोशिश में दुनिया लगी
पाने की नियत में ज़िंदगी लगी
वास्तविकता को परे रखकर
मौत और विनाश के कगार आ खड़े

अब जरा डगमगाए तो गिरना
जमाने को पीछे छोड़ बढ़ना
हम श्रेष्ठ के चोले के पीछे
व्यर्थ विवादों के बुन ताने-बाने

सोच ऊँची,कर्म हो सच्चे
मेहनत भरी हो ज़िंदगी,मन सच्चे
ज़िंदगी की वास्तविकता यही
पर ज़िंदगी अब छल-कपट से भरी

छाँव भी शीतल नहीं अब
धूप भी चुभती बहुत है
कसक भेदती हरपल दिलों को
यह ज़िंदगी भी भला कोई ज़िंदगी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, November 8, 2019

लेखनी की शक्ति

कलम का प्रहार हो,
दो धारी तलवार हो,
मन मजबूत कर,
आवाज उठाइए।

बड़े-बड़े यहाँ चोर,
मंहगाई करे शोर,
जनता का लिखें दर्द,
लेखनी चलाइए।

डरती नहीं है यह,
खोलती है कान यह,
कमजोर समझ के,
भूल मत जाइए।

खोलती है यह राज,
लिखती है दिन-रात,
कलम की ताकत को,
कम मत मानिए।

लिखती है बार-बार,
एक ही करे पुकार,
लुट रही बेटियों की,
लाज को बचाइए।

बैठे आँख बंद कर,
ऊँची-ऊँची कुर्सियों पे,
अब आप-बीती भला,
किसको सुनाइए।

थक कर रुके नहीं,
लेखनी का धर्म यही,
बुराई से लड़ने में,
हार मत मानिए।

कोशिश हर जंग की,
अनेक रूप रंग की,
सच्चाई की राह चल,
सब अपनाइए।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, November 7, 2019

चलो एक गीत लिखते हैं

चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

ऋतुएं है चार दिन की ढल जाएंगी
प्रीत की बातें हरपल याद आएंगी
चलो आज उन यादों को याद करते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

बागों में झूले,झूले में सजनी
होठों पर दिल की थिरक रही रागिनी
सजनी के मन की प्रीत लिखते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

मधुमास ले आया बसंती हवाएं
सावन में सखियाँ कजरी सुनाएं
कार्तिक पे प्रेम के दीप जलते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।

कुहासे की चादर मौसम ने ओढ़ी
बीत चली साल यादें पीछे छोड़ी
टूटे न प्रीत के धागे ये फरियाद करते हैं
चलो एक गीत लिखते हैं
जीवन संगीत लिखते हैं।।
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Wednesday, November 6, 2019

चले आना ना रुकना तुम

चले आना ना रुकना तुम
न कहना कि बंदिशें हैं
यह बंदिशें हट जाएंगी
अगर दिल में मोहब्बत है

हवाए अब लाख मुँह मोड़ें
रोकें से रुकें ना हम
गुजर रहें हैं हसीं लम्हें
कोई अब न रोके पथ
चले आना......

मेरे इस मौन निमंत्रण को
नहीं ठुकरा देना तुम
कहीं लोगों की बातों में
न मुझको भूल जाना तुम
चले आना.....

गवाह यह वादियाँ सारी
गवाह चाँद-तारे भी
उमर ना बीत जाए सारी
तेरे इंतज़ार में ही
चले आना.....

चले आएं हैं ठुकराकर
ज़माने की बंदिशों को
नहीं जाना हमें लौटकर
छोड़ आएं राहों को
चले आना .....
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, November 3, 2019

पलकों में सपने सँजोये

पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।
छवि बसी आँखों में तेरी,
धार बन बहती रही।।

खोजती हूँ निशान तेरे,
दूर जाती  राह में।
छोड़ सब संग चल पड़ी हूँ,
विश्वास ले चाह में।
गूँजती मन बातें  तेरी, 
मिसरी उर घुलती थी।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।

आस मन में तेरी लिए हम,
प्रेम डगर पे चल दिए।
पता नहीं तेरा ठिकाना,
खोजने तुझे चल दिए।
ढूँढ रही अब हर दिशा में,
धूप में चलती रही।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।

धूप में तपी जिंदगी को
प्यास तड़पाती रही।
पाँव में उभरे हैं छाले,
राह थी काँटो भरी।
घूरती लोगों की नजरें,
हृदय को खलती रही।
पलकों में सपने सँजोये,
आस मन पलती रही।।
***अनुराधा चौहान***

Saturday, November 2, 2019

एकता की पूँजी

जीवन की यह श्रेष्ठ है कुँजी
प्यार,एकता जिसकी पूँजी 
सद्गुण का मन वास है रहता
ज्ञान रूपी भंडार है बहता

टूट सकें न बंधन ऐसा
प्रेम,एकता पाश के जैसा
खुशियों से वह घर चमकाता
प्रीत सुमन आंगन महकाता

हर वाणी से प्रेम झलकता
सूरज मन में साहस भरता
स्नेह मिले स्वजनों का हरदम
ज्ञान प्रकाश से चमके यह मन

स्त्री के प्रति बदली है प्रीती
संस्कारों से मिलती रीती
सबकी इज्जत,मान व सेवा
सद्कर्मों से मिलता मेवा

एकता ही पहचान हमारी
जिसके झुकी दुनिया सारी
जहाँ खोखली होती एकता
शुरू हो जाती वहाँ विपदा

देश, घर-परिवार को बाँधे
दुष्ट झुके सदा इसके आगे
सुख-समृद्धि इसका है नारा
एकता,विश्वाश, भाईचारा
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Friday, October 25, 2019

गरल गरीबी का

कीट के जैसी ज़िंदगी
जीने को हैं मजबूर
पल-पल गरल गरीबी का
पीने को हैं मजबूर
जूतों तले मसल जाते हैं
पल भर में उनके सपने 
देखा जाता उन्हें हर कोण से
हिकारत भरी निगाहों से
लोगों के दृष्टिकोण की
फिर भी परवाह नहीं करते
मेहनत-मजदूरी करके
जीवन अपना निर्वाह हैं करते
तन पे नहीं सजता कभी
नया कपड़ा त्यौहारों में
सिल-सिल कर पहना जाता
पैबंद नया झलक जाता
सुलझाने में लगे रहते हैं
उलझनें अपने जीवन की
उलझन बंधु बनकर बैठी
ज़िंदगी जहन्नुम बन बैठी
फिर भी जी रहे हैं जीवन
हर पल बस एक आस में
शायद भविष्य लेकर आए
आने वाला कल सुनहरा 
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Tuesday, October 22, 2019

दीप

🕯️
है
लघु
दीपक
तम हर
रौशन घर
दीपावली पर्व
जगमग देहरी
🕯️
ये
पर्व
दिवाली
ज्ञानज्योति
मिटा अंधेरा
अमावस रात
दीपक प्रज्वलित
🕯️
दे
हर्ष
त्यौहार
मिटा तम
दीपक द्वार
प्रकाशित मन
दीवाली का आरंभ

अनुराधा चौहान 

Friday, October 18, 2019

दफ़न हो जाते सपने

काँधे पर अनगिनत
फरमाइशों का बोझ
चिंता में तिल-तिल जलते
और धुआँ होती ख्वाहिशें
दफ़न हो जाते सपने 
दिन-रात यही सोच-सोचकर
कैसे हो सबके पूरे सपने
पिता के लिए नई लाठी
माँ का टूटा चश्मा
गुड़िया बैठी दरवाजे पर
आज आएगा नया बस्ता
एक नया पैबंद झलक उठा
मुस्काती पत्नी की साड़ी में
दिन भर भीगता रहा यह सोच
छतरी लूँगा अबकी बारिश में
खत्म हो गई मुन्ने की दवाई
कमर तोड़ रही यह महंगाई
हर बार होती यही कोशिश
इस बार होंगे सपने पूरे
समस्या रहती वहीं के वहीं
मिलता नहीं समाधान कोई
अरमान हर बार जल जाते 
छुप जाते आँसू भी धुएं में
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Monday, October 14, 2019

जल बिन तड़पती मीन

कुछ पलछिन नैनों में बसे
कुछ भीतर-बाहर भाग रहे
कुछ अलमारी में छुप बैठे
कुछ मेरी खुली किताब बने

कुछ कब सावन की बन बदरी
नयनों से बरसकर चले गए
कुछ जेठ की तपती धूप से
दिन-रात जलाते मन की नगरी

कुछ सूख-सूख कर चटक रहे
ज्यों धूप से चटकती धरती हो
कुछ हवाओं संग कर इतराते
जैसे पुरवाई मुझसे जलती हो

नयनों को मेरे आराम नहीं
दिन-रात देख रहे रस्ता तेरा
आजा ओ परदेशी कहीं से
क्या भूल गया तू प्यार मेरा

बुझने लगी जीवन की बाती
जीवन के दीप जलाने जा
कुछ भूली-बिसरी यादें बची हों
उन यादों के साथ में आजा

पूनम का चाँद देख मुझे
कुछ मुरझाया सा रहता है
हर वक़्त मेरी आँखों में
अब तेरा ही साया रहता है

चाँदनी सहलाकर कहती
क्यों रहती हो खोई-खोई
कुछ प्रीत के गीत सुना दे मुझे
मेरी न सखी-सहेली कोई

कैसे कहूँ अब तुम बिन मेरे
सजते नहीं हैं सुर कोई
बिखर गई जीवन से सरगम
मैं जल बिन तड़पती मीन कोई

मैं दुखियारी किस्मत की मारी
जिसकी क़िस्मत ने ही षड़यंत्र रचे
मृग मरीचिका-सी खुशियाँ देखकर
दिल ने कांँटो भरे यह मार्ग चुने
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Friday, October 11, 2019

प्रेम के मुखौटे

दिखावटी प्रेम के ओढ मुखौटे
झूठ मुलाकातों के सिलसिले चले
संवेदनाएं कहीं गुम सी होती
बातों में मिसरी सा स्वाद घुले

शर्तो के अनुबन्ध पर बंधे हर रिश्ता
पल मे अपना कभी पल में पराया
प्रेम की बदलती हुई परिभाषा
प्रेम त्याग भूल बस पाने की आशा

प्रेम में पथ पर छल के उजाले
भटकाते अँधेरों में मन भोले-भाले
फिर भी दिखावा कम नहीं होता
दिखावे में प्यार कहीं गुम होता

बेवजह होते झगड़े भरपूर
बिगाड़े हमेशा रिश्तों के रूप
बंजर होती भावनाएं मन की
खिलते कहाँ मनचाहे  फूल

कपट के शूलों की नित्य चुभन से
रिश्ते लथपथ बेहाल पड़े
प्रीत पहले सी नजर न आती
शर्तों में ज़िंदगी अब बंधना नहीं चाहती
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Saturday, October 5, 2019

बीत गए बरसों

यादों की बदली-सी छाई
ख्व़ाबों में दिखी इक परछाई
आँखों में अश्रु थिरकने लगे
मन के भावों ने ली अंगड़ाई

हलचल-सी मची सीने में 
रिश्तों की महक संग ले आई
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें
याद आईं कुछ बीती बातें

अमराई की सौंधी खुशबू
ज़ेहन में सरसों फूल उठी
रेहट की खट-पट, खट-पट
बैलों के घुंघरू की गूँज उठी

मटके की थाप पे थिरक उठे
पर्दे में छिपे गोरे मुखड़े
पायल की मधुर रुनझुन-रुनझुन
चूड़ियों से खनकते घर के कोने

पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
बीत गए इन्हें देखे बरसों
सब चारदीवारी में सिमट गए
पत्थरों के शहर में जो बस गए
***अनुराधा चौहान*** 

Friday, October 4, 2019

साँसों की सरगम

मन वीणा के तार हो तुम
धड़कन की आवाज़ हो तुम
तुमसे ही यह ज़िंदगी है
जीवन का हर साज हो तुम

मुरझाया मन का रजनीगंधा
खिल उठा जो तूने छुआ
स्पर्श के एहसास से भींगे
खुशियों के हर रंग हो तुम

रोम-रोम तुमसे ही महके
तुमसे ही यह जीवन चहके
साँसों की सरगम तुमसे
जीवन का हर गीत हो तुम

तुम मेरे मन के दर्पण हो
तुझमें ही मेरा अक्स घुला
झील के ठहरे पानी में
चाँद का प्रतिबिंब हो तुम
***अनुराधा चौहान***

Saturday, September 28, 2019

जीवन के रस

रस बिना जीवन की 
क्या कल्पना करे कोई
रस नहीं तो जीवन सबका
पत्थर सा होता नीरस 
इंसान होते बुत जैसे
फूल बिना रस के कंटीले
फलों का सृजन न होता
बंजर होता धरा का सीना
मुस्कान कहीं दिखती नहीं
न सुर होता न सरगम बनती
सोचो कैसी होती ज़िंदगी
रस ही जीवन संसार का
जीवन के रंग भी हैं रस से
फूलों के रस से ले मधुकर
मधुवन सींचते मधुरस से
मधुर रस से भरे 
फल-फूलों से लदी-फदी
झूमती वृक्षों की डालियाँ
जीवन झूमे विभिन्न रसो से
प्रेम रस में सराबोर हो
सजनी साजन के मन भाए
कान्हा की प्रीत में झूमे
गोपियाँ गोकुल में रास रचाएं
वियोग में डूबी मीरा 
गाती विरह की वेदना
किलकारी शिशु की सुन
अमृत रस-सा ममत्व 
उमड़ता सीने में
दादाजी के किस्से सुनकर
बचपन हँसता बगीचे में
भांति-भांति के रस लिए
वसुधा जीवन में प्राण भरे
रस बिना जीवन नीरस
रसमय जीवन से प्रकृति हँसे
***अनुराधा चौहान***

Sunday, September 22, 2019

🌹 बेटियाँ🌹

बेटियाँ भी अजीब होती हैं
इसलिए दिल के बेहद करीब होती हैं
लड़ती-झगड़ती रहती भाई-बहनों से
पीछे उनकी सलामती की दुआ माँगती
रूठ जाती माँ-बाप से नखरे दिखाती
माँ-बाप की तकलीफ़ देख तड़प जाती
यह बेटियाँ बहुत ही प्यारी होती हैं
इसलिए दिल के बेहद करीब होती हैं
करती हैं ढेरों फरमाइशें,ख्वाहिशें दिखाती
हालात को देखकर फिर उन्हें छुपा लेती
राखी लिए हाथ द्वार पे ताकती रहती
भाई के न आने पर कान्हा को बाँधती
भाई की लंबी उम्र की दुआ माँगती
ससुराल में रहकर भी पल-पल याद करती
मन की पीड़ा छुपाकर हँसती रहती
यह बेटियाँ मन ही मन रो लेती हैं
कभी अपनी परेशानी नहीं बताती
बहुत खुशनसीब वो दहलीज होती है
जिस दहलीज की शोभा बेटियाँ होती हैं
यह बेटियाँ भी अजीब होती हैं
इसलिए दिल के बेहद करीब होती हैं
***अनुराधा चौहान***

Saturday, September 21, 2019

दिखावा

बहुत दिनों से सोचा मैं कुछ नया लिखूँ
पर क्या लिखूँ वही ज़िंदगी के झमेले
लाखों की भीड़ है पर इंसान अकेले
अपने-आप में मुस्कुराते खुद ही बतियाते
अगर वजह पूछ ली इसकी तो आँखे दिखाते
गप्पे-शप्पे,हँसना-गाना यह जमाना पुराना हुआ
महफिलों में यार की यार ही बेगाना हुआ
किए थे सजदे माँगी थी खुशियों भरी ज़िंदगी
खुशियाँ तो मिली अपनों की कमी से भरी
पहले घर बड़े थे पर सब दिल के करीब थे
छोटे से घरों में भी अब दूरियाँ बहुत है
न किसी की चिंता न ही कोई फिकर है
इंसानियत को अब इंसान से ही डर है
ज़िंदगी की दौड़ में ज़िंदगी ही पिछड़ती
उलझनें हैं इतनी उसी में रहती उलझती
दिखावा ही दिखावा फोकट का शोर-शराबा
सजदा करो दिल से करो दिखावा क्यों दिखाना
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Tuesday, September 17, 2019

सपने धुआँ-धुआँ

मिट जाती बस्ती पल-भर में
और सपने हो जाते धुआँ-धुआँ
मिट जाती ख्वाहिशें गरीबों की
खड़ा हो जाता इमारतों का जहाँ

कुछ दिन मचाते खींचातानी
कुछ दिन ही होती मारामारी
देखकर रह जाते स्वाहा सपने
मिट जाते दिल के सब अरमान

चिंता में सुलगती जर्जर काया
न सिर पर छत न कोई छाया
न बनता कोई मसीहा इनका
न कोई खेवनहार ज़िंदगी का

करते फिर से मेहनत-मजदूरी
मरी ख्वाहिशों को करके दफ़न
बस यही ज़िंदगी है गरीबों की
मरने पर नसीब न होता कफन
***अनुराधा चौहान*** 

Monday, September 16, 2019

सुकून के पल

सुकून ही कहीं खो गया
इस शहर में आकर
चमक-दमक की ज़िंदगी
बस दिखावा ही दिखावा
समझ ही नहीं आता
यहाँ इंसान है या छलावा
इससे भले तो हम तब थे
जब रहते थे हम गाँव में
शहर के बड़े साहब से
हम आम आदमी भले थे
सुकून की ज़िंदगी थी
इंसानियत से भरी हुई
प्रेम और खुशी से छलकती
अपनेपन का अहसास था
मौसम भी अपना-सा लगता था
चारों तरफ़ हरियाली बिखरी
नीम आम के पेड़ थे
पेड़ों के नीचे चारपाई पर
दादा-दादी के मशहूर क़िस्से थे
बहती शीतल स्वच्छ नदी थी
ठंडी पवन के मस्त झोंके
इक ताजगी भरा अहसास जगाते
वो सुकून भरे पल-छिन
अब भी गाँव की याद दिलाते
इस शहर में कहाँ वो बात
जो गाँव सा सुकून दिला दे
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, September 11, 2019

हमारी मातृभाषा हिंदी


मातृभाषा हम सबकी हिंदी
ममता और दुलार है हिंदी
हिंदोस्ताँ की शान है यह
अब रहती मुरझाई-सी हिंदी
सौतन बनकर इंग्लिश रानी
सबके दिलों में छाई है इंग्लिश
अटपटे अपने बोलों से
सबके बीच समाई है इंग्लिश
बहना शब्द में प्यार बसा
रूखा-रूखा -सा यह सिस्
दिखाए अपनेपन की कमी 
चढ़ा इंग्लिश का रंग तो
बाबूजी भी "डैड" हो गए
माँ,बनी मम्मी से"ममी" 
हिंदी भाषा से मुँह मोड़कर
सॉरी कहकर चलती इंग्लिश
सीधी-सरल मन में उतरती 
भारत माँ के भाल की बिंदी
साहित्य का शृंगार है हिंदी
आओ फिर से इसे संवारे
हम सबकी मातृभाषा हिंदी
हाय-बाय का शौक छोड़कर
नमस्कार रीति अपनाएं फिर
चरणस्पर्श बड़े-बुजुर्गों का
सिर्फ हाय से टरकाए न फिर
सिर्फ सिद्धांतों की बातों से भला
काम न कभी बना न बनने वाला
थोड़ी-थोड़ी कोशिश से ही
हिंदी बने फिर शीश का तारा
माना उन्नति के लिए जरूरी
इंग्लिश भाषा का है प्रयोग
पर बोलचाल की भाषा में
शब्दों के रूप न इससे तोड़ो
हिंदोस्ता की शान है यह
हम सबका सम्मान है हिंदी
अंग्रेजी की मार से सदा
हो रही है घायल हिंदी
उभरेगी फिर से एक दिन 
बनकर कलम की तेज धार हिंदी
हो कितनी भी लहुलुहान पर
तलवार बन चमकती रहेगी
हमारी मातृभाषा है हिंदी
हम सबका मान है हिंदी
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, September 10, 2019

यादों की पोटली

आज़
मुद्दतों बाद खोली
यादों में बंद
रिश्तों की पोटली
धूप दिखाने रखती यहाँ वहाँ
सहेजकर
सीली यादों को
तभी खन्न से गिरी चिल्लर
एक आने,दो आने की
खट्टी-मीठी गोलियाँ मिलती
तब इनसे चौराहे पर
दो चोटी बाँधे कपड़े की गुड़िया 
लिपटी
माँ की रेशमी साड़ी में
मिट्टी की गुल्लक खनक उठी
उसमें रखे पाँच आने से
कहीं से सरककर गिरा
गुलाब सूखा
तोड़ा था पड़ोसी के आँगन से
तह बना रखा वो रुमाल
जिस पर लिखा था नाम
मैंने रेशम के धागे से
इक चिट्ठी 
माँ के हाथ लिखी
महकती मायके के अहसासो से
बाबूजी का फाउंटेन पेन देख
आँसू बहते आँखों से
छीना था भाई से कभी
यादों में झट से झाँक उठा
वो पुराना दो का नोट
कह गया एक पल में 
अनगिनत बातें
भाई के अहसास जगा
बस बहुत लग चुकी धूप
रख देती हूँ इन्हें सहेजकर
यह यादें ख़ामोशी से
टटोलकर मन को मेरे
आँसू दे जाती आँखों में
मैं फिर से बंद कर रख देती
रिश्तों की पोटली को
यादों के संग
खामोशी से ताले में
 ***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार




Monday, September 9, 2019

अहम के शिकार

अपने अहम के शिकार हुए
अब सबसे अलग-थलग बैठे
अहंकारी व्यक्ति का जीवन
बस अकेलेपन में ही बीते है
जब तक रहता माल जेब में
चापलूस कई मिल जाते हैं
पूरे हो जाते हर सपने
बस अपने ही खो जाते हैं
तिनका-तिनका जोड़ा था जो
जिस दिन मिट्टी में मिल जाता है
मुश्किल घड़ी में गले लगाने
अपनों का हाथ आगे आता है
पल दो पल के यह साथी
पल दो पल ही साथ निभाएंगे
करो शिकार खुद अहम का अपने
शिकारी बाहर से न आएंगे
भाई-बहन और बन्धु सखा से
मत तोड़ना नेह के धागे
बहुत बड़ी होती है ज़िंदगी
क्यों जीवन के सच से भागे
***अनुराधा चौहान***