साज कभी जो साथ रचे थे
तार सभी टूटे दिल के।
आहत मन की सुर सरिता से
कोई गीत नहीं किलके।
भूल गए की जो प्रतिज्ञा
जिए संगिनी संग प्रिये।
समय बदलते बदल गए
बने आज पाषाण हिए।
कभी रागिनी बनकर बहती
नयन नीर पीड़ा छलके।
साज कभी.....
तुमने सोचा पीड़ा सहके
विरहिन सी घबराऊँगी।
गहन अँधकार के बादल में
छुपकर मैं खो जाऊँगी।
अबला नारी नहीं आज की
मूँद रखूँ अपनी पलकें।
साज कभी.....
दूर हुई जब दुख की बदली
आशा का संचार हुआ
कंटक पथ पर फूल खिले फिर
सपनों ने आकाश छुआ।
मन वीणा के तार छेड़ते
मध्यम सुर हल्के हल्के।
साज कभी.....
©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️