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Saturday, November 23, 2019

जीवन की साँझ


साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
महकती थी सुमन से बगिया
 बंजर-सी वो हो गई
प्रेम के अहसास जो छिटके
ओस की तरह गुम हुए
अंतिम पथ पे आज अकेले
बाट जोहते रह गए
दर्द भरी आँधियों में यादें
गुबार बीच गुम हुई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
इस बीते समय की धूल में
यादें भी गुम हो गईं
खुरदरी आज हथेलियों में
दिखती थी कभी ज़िंदगी 
लिपटकर इन बाहों में  कभी
राहत तुम्हें मिलती थी
आस के आसमान पे बैठ
राह ताकती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई
आज झुरझुरी इस काया से
मोह-ममता छूट गई
सुनकर तोतले बोल तेरे
झूम उठे थे खुशी से
तुम जब चले उँगली पकड़कर 
आँखो में सपने पले
उन्हीं सपनों की बिखरी किर्चे
मैं समेटती रह गई
साँझ हुई जीवन की जबसे
भोर बोझिल-सी हो गई।
साँझ भी ढ़ल रही है अब तो,
आशा धूमिल हो गई।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 24 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. हार्दिक आभार यशोदा जी।

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  2. सुन्दर रचना

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  3. ..खुरदरी आज हथेलियों में,
    दिखती थी कभी ज़िंदगी ।
    लिपटकर इन बाहों में कभी,
    राहत तुम्हें मिलती थी।
    .. धीरे-धीरे हाथों से समय निकलता जा रहा है
    समीर लो जितना कुछ जो भी फिसलता जा रहा है.. वर्तमान भविष्य अतीत सब की रूपरेखा आपने बहुत ही विचारणीय पंक्तियों के साथ खूबसूरती से लिख डाला... दो बार पूरा पढ़ा मैंने, अंदर कहीं कोई कुलाबुलाहट सी.मच गई कि समय निकलता जा रहा है..🙏

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    1. हार्दिक आभार अनीता जी

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  4. धन्यवाद आदरणीय

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  5. बेहतरीन रचना

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    1. हार्दिक आभार अपर्णा 🌹

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