जिम्मेदारी के बोझ तले
ख्व़ाहिशें दम तोड गईं
बढ़ती रहीं चेहरे पे सिलवटें
निशानी उम्र की दे गईं
दो से शुरू किया सफ़र
संग साथी इस संसार में
बच्चों से ही रही बहार
जीवन के इस आँगन में
ज़रूरतें पूरी करने में कब
ज़िंदगी हाथों से फिसल गिरी
लेखा-जोखा पढ़ने में कब
खुशियों सूखे पत्ते सी झरी
पलटते रहतें हैं बैठ फिर
यादों की पुस्तक के पन्ने
भूल गए वो भी बड़े होकर
कल-तक जो बच्चे थे नन्हें
यही दस्तूर ज़िंदगी का
बड़े विकट इसके झमेले
रिश्तों के संग जीने वाला
रिश्तों के बीच अकेले
श्वेत बाल सिलवटें लिए
जीवन के अंतिम छोर खड़े
कोई उम्मीद नहीं दिल में लिए
जब अपने ही हैं दूर खड़े
अंतिम पड़ाव ज़िंदगी का
हर एक जीवन की सच्चाई
इंसान रह जाता अकेला
सहता अपनों की जुदाई
अंतिम पड़ाव ज़िंदगी का
हर एक जीवन की सच्चाई
इंसान रह जाता अकेला
सहता अपनों की जुदाई
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
ज़िंदगी का मर्म समेटे यथार्थ के पन्नों पर सजी सुन्दर अभिव्यक्ति बहना.
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार सखी
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