मिट जाती बस्ती पल-भर में
और सपने हो जाते धुआँ-धुआँ
मिट जाती ख्वाहिशें गरीबों की
खड़ा हो जाता इमारतों का जहाँ
कुछ दिन मचाते खींचातानी
कुछ दिन ही होती मारामारी
देखकर रह जाते स्वाहा सपने
मिट जाते दिल के सब अरमान
चिंता में सुलगती जर्जर काया
न सिर पर छत न कोई छाया
न बनता कोई मसीहा इनका
न कोई खेवनहार ज़िंदगी का
करते फिर से मेहनत-मजदूरी
मरी ख्वाहिशों को करके दफ़न
बस यही ज़िंदगी है गरीबों की
मरने पर नसीब न होता कफन
***अनुराधा चौहान***
उत्तम सृजन
ReplyDeleteवास्तविकता के धरातल पर बहुत सटीक अभिव्यक्ति सखी ।
ReplyDeleteहृदय को स्पर्स करती ।
हार्दिक आभार सखी
Deleteकरते फिर से मेहनत-मजदूरी,
ReplyDeleteमरी ख्वाहिशों को करके दफ़न।
बस यही ज़िंदगी है गरीबों की,
मरने पर नसीब न होता कफन।
आज हमारे प्रधानमंत्री के जन्मदिन के धूम के मध्य लिखी आपकी यह रचना विचारणीय है कि समाज के अंतिम पावदान पर खड़ा आदमी भी इस उत्सव को उसी उत्साह से मना रहा है ?
प्रणाम दी।
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteकडुवी बात और सच्ची बात ...
ReplyDeleteऐसा समाज हम सबने ही तैयार करना है ...
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteअनुराधा दी, समाज की कड़वी सच्चाई को बहुत सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ज्योति बहन
Deleteकटु यथार्थ उजागर करती सुन्दर रचना अनुराधा जी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
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