सुकून ही कहीं खो गया
इस शहर में आकर
चमक-दमक की ज़िंदगी
बस दिखावा ही दिखावा
समझ ही नहीं आता
यहाँ इंसान है या छलावा
इससे भले तो हम तब थे
जब रहते थे हम गाँव में
शहर के बड़े साहब से
हम आम आदमी भले थे
सुकून की ज़िंदगी थी
इंसानियत से भरी हुई
प्रेम और खुशी से छलकती
अपनेपन का अहसास था
मौसम भी अपना-सा लगता था
चारों तरफ़ हरियाली बिखरी
नीम आम के पेड़ थे
पेड़ों के नीचे चारपाई पर
दादा-दादी के मशहूर क़िस्से थे
बहती शीतल स्वच्छ नदी थी
ठंडी पवन के मस्त झोंके
इक ताजगी भरा अहसास जगाते
वो सुकून भरे पल-छिन
अब भी गाँव की याद दिलाते
इस शहर में कहाँ वो बात
जो गाँव सा सुकून दिला दे
***अनुराधा चौहान***
बिलकुल सत्य अनुराधा जी!हम शहर की चकाचौंध की ओर आकर्षित होते है पर गाँव स्वच्छ संस्कारित वातावरण की मिठास एवं खुशबू के मजे को भूल नहीं पाते।बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी 🌹
Deleteबचपन की याद दिला दी ।
ReplyDeleteमधुर रचना
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुन्दर रचना अनुराधा जी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार पम्मी जी
ReplyDeleteनीम आम के पेड़ थे
ReplyDeleteपेड़ों के नीचे चारपाई पर
दादा-दादी के मशहूर क़िस्से थे
सच कहा आपने अब वो शुकुन कहाँ ,सुंदर सृजन
हार्दिक आभार सखी 🌹
Deleteपेड़ों के नीचे चारपाई पर
ReplyDeleteदादा-दादी के मशहूर क़िस्से थे
बहती शीतल स्वच्छ नदी थी
ठंडी पवन के मस्त झोंके
इक ताजगी भरा अहसास जगाते
वो सुकून भरे पल-छिन
अब भी गाँव की याद दिलाते
वाह।
सचमें वो गाँव यादें ताज़ा हो गयी।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना सखी जमीन से जुड़ी।
ReplyDeleteसुकून के पल ।
अप्रतिम।
हार्दिक आभार सखी
Deleteअनुराधा जी, गाँव में बहुत कुछ अच्छा है तो बहुत कुछ शहरों के माहौल से भी बदतर है.
ReplyDeleteप्रेमचन्द के 'गोदान' से लेकर श्री लाल शुक्ल के 'राग दरबारी' में गाँव की जो असलियत दिखाई गयी है, वह आपके विचारों से मेल नहीं खाती.
आपकी बात से सहमत हूँ आदरणीय। परंतु मैंने बचपन में गाँव की जो छवि देखी जो महसूस किया उसका अपनी रचना में वर्णन किया। दो महीने की छुट्टी गाँव में कब बीत जाती थी पता नहीं चलता था।अब तो वर्षों से शक्ल नहीं देखी तो हालात पता नहीं। आपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार
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