रीतियों के जाल जकड़ा
कब तक रहेगा जमाना।
लाज का पल्लू पकड़ के
दर्द नारी न पहचाना।
छीन हाथों से किताबें
आज भी करते विदाई।
पीर बेटी जब सुनाती
रीति की देते दुहाई ।
चीखकर कहती कलम यह
पीर कब समझे जमाना।
रीतियों के जाल......
एकजुट होकर चलें अब
आँख पट्टी खोलनी है।
बंद हो शोषण सभी अब
बात सबको बोलनी है।
बोझ बनी कुरीतियों को
आज है जड़ से मिटाना।
रीतियों के जाल.....
अधिकार से वंचित कभी
कोई न अब बेटी रहे।
मान उसको भी मिले फिर
हर्ष की यह गाथा कहे।
संचालिका यह सृजन की
सीख ये सबको सिखाना।
रीतियों के जाल......
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2008...आज सूर्य धनु राशि से मकर राशि में...) पर गुरुवार 14 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी
Deleteयथार्थ परक सार्थक रचना सखी ।
ReplyDeleteमकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं।
सहृदय आभार सखी
Deleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसादर
आपका हार्दिक आभार
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 15-01-2021) को "सूर्य रश्मियाँ आ गयीं, खिली गुनगुनी धूप"(चर्चा अंक- 3947) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार सखी
Deleteसमझ वही सकता जिस पर गुजरता
ReplyDeleteअंधा बहरा मूक रहे सदा ज़माना
हार्दिक आभार आदरणीया दी
Deleteप्रभावी लेखन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसचेत औऱ सीख देती बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteबधाई
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Delete