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Saturday, June 4, 2022

तपती वसुंधरा


 मानव बना विनाशक बरती न सावधानी।
यह आपदा बनी अब लीले नदी निशानी॥

सूखे तड़ाग सारे धरती चटक रही है।
यह क्रोध भाव कैसा क्यों बैर नीति ठानी॥

तपती वसुंधरा भी अम्बर निहारती है।
बरसो जरा झमाझम आये घड़ी पुरानी॥

नव पौध रोप कर हम धरती बचा सकेंगे।
जीवन फले धरा पर यह रीत भी निभानी॥

नयना निहारते है प्यासा उड़े पपीहा।
छाए घना अँधेरा बहती पवन सुहानी॥

शीतल समीर छेड़े संगीत जब धरा पर।
घिरती घटा घनेरी अंतस समेट पानी॥

मन झूमते सुधी फिर मुख से हटे निराशा।
बूँदे गिरे टपाटप कहती नई कहानी॥
अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार

12 comments:

  1. मानव बना विनाशक बरती न सावधानी।
    यह आपदा बनी अब लीले नदी निशानी॥
    सूखे तड़ाग सारे धरती चटक रही है।
    यह क्रोध भाव कैसा क्यों बैर नीति ठानी॥

    अब पर्यावरण से बैर तो कर लिया लेकिन सुधार अभी भी नहीं । सुंदर रचना

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(६-०६-२०२२ ) को
    'समय, तपिश और यह दिवस'(चर्चा अंक- ४४५३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. जी हार्दिक आभार सखी

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  3. वाह वाह, सामयिक

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय।

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  4. पर्यावरण का संरक्षण ही आज की मांग है,सारगर्भित रचना ❤️

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    1. हार्दिक आभार अनुपमा जी।

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  5. पर्यावरण सरंक्षण के प्रति जागरूक करती प्रभावशाली रचना

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    1. हार्दिक आभार अनीता जी।

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  6. अर्थपूर्ण और सुंदर सृजन

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय।

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