मानवता चीख-चीख कहती
कहांँ हो मेरे रखवालों
कहांँ जाकर छुपे हो तुम
जो अब नजर नहीं आते
देखो कितनी बेबस और
लाचार इस धरा की कहानी है
कटते वन उपवन इसके
धूप से जलती छाती है
मानवता का कत्ल देखो
फुटपाथ पर बचपन भूखा है
नारी की व्यथा क्या कहूंँ
बच्चियों का बचपन भी फीका है
नहीं बचती हैं मासूमियत
धरती के दरिंदों से
व्यथा रो-रोकर कहती है
मानवता अपने रखवालों से
जरा तो रहम कर जाओ
मेरा अस्तित्व बचालो तुम
मानवता अगर मर गई
जीना दुश्वार हो जाएगा
आसमान टूट कर गिरेगा
धरती का कलेजा भी फट जाएगा
मिट जाएगी यह सृष्टि
वजूद सबका ही मिट जाएगा
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDelete....बिल्कुल सत्य
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 18/01/2019 की बुलेटिन, " बढ़ती ठंड और विभिन्न स्नान “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शिवम् जी
Deleteबहुत सुन्दर और प्रभावी रचना अनुराधा जी !!
ReplyDeleteसच्च कहा सखी आप ने बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसादर