यह कैसा इश्क है
आसमां का ज़मीं से
लगता है दूर कहीं
मिलता है ज़मीं से
मगर यह सच नहीं है
यह है सिर्फ फ़साना
चाह के भी गा न पाएं
यह प्यार का तराना
जब गुजरता है इश्क
इनका दर्द की इंतहा से
आँसुओं की बारिश
तब ज़मीं को भिगोती
बस यही है मिलन
धरती का अंबर से
अंबर के आंँसुओ को
तन पर सजाकर
पहनकर प्यार की
यह धानी चूनरिया
शरमाकर अंबर की
बन जाती दुल्हनिया
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-04-2019)"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312) को पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी
सहृदय आभार सखी
Deleteसुंदर प्रस्तुति सखी ।
ReplyDeleteबहुत खूब
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