वक़्त की बेहरमी ने
तोड़े मन के सारे भरम
कभी दिल टूटकर बिखरा
यह वक़्त यूँ बदला
चल दिए छोड़कर अपने
जिगर पर मार के खंजर
वक़्त की यह कैसी मनमानी
मरता दिखे आँखों का पानी
बुद्धि विवेक सब भूल बैठे
वक़्त के चुभे शूल ऐसे
अपनापन पहचान खो रहा
अपना ही अब घाव दे रहा
मति के मारे इंसान सारे
आपस में ही लड़ते रहते
आपसी प्रेम की भूले भाषा
वक़्त के साथ बढ़ती अभिलाषा
इंसानियत पर हावी हो रहा
वक़्त अपने रूप बदलकर
अच्छा हो या बुरा ही सही
वक़्त न रुकता किसी के लिए भी
दिल दिमाग दोनों खुले रखकर
चलो वक़्त से कदम मिलाकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
सुंदर रचना अनुराधा जी, वक़्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में ही समझदारी है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना अनुराधा जी ।
ReplyDeleteसहृदय आभार मीना जी
Deleteसहजता से गहरी बात कहती कविता!
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteवक़्त के आगे पर कौन रह सका है ...
ReplyDeleteइंसान सोचता है पर अपने स्वार्थ को भूल नहीं पाता ...
धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर सखी
ReplyDeleteहृदय की पीड़ा
ReplyDeleteसहृदय आभार दी
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