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Tuesday, April 2, 2019

वक़्त के घाव


वक़्त की बेहरमी ने
तोड़े मन के सारे भरम
कभी दिल टूटकर बिखरा
यह वक़्त यूँ बदला
चल दिए छोड़कर अपने
जिगर पर मार के खंजर
वक़्त की यह कैसी मनमानी
मरता दिखे आँखों का पानी
बुद्धि विवेक सब भूल बैठे
वक़्त के चुभे शूल ऐसे
अपनापन पहचान खो रहा
अपना ही अब घाव दे रहा
मति के मारे इंसान सारे
आपस में ही लड़ते रहते
आपसी प्रेम की भूले भाषा
वक़्त के साथ बढ़ती अभिलाषा
इंसानियत पर हावी हो रहा
वक़्त अपने रूप बदलकर
अच्छा हो या बुरा ही सही
वक़्त न रुकता किसी के लिए भी
दिल दिमाग दोनों खुले रखकर
चलो वक़्त से कदम मिलाकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

10 comments:

  1. सुंदर रचना अनुराधा जी, वक़्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में ही समझदारी है ।

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  2. बहुत सुन्दर रचना अनुराधा जी ।

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    1. सहृदय आभार मीना जी

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  3. सहजता से गहरी बात कहती कविता!

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  4. वक़्त के आगे पर कौन रह सका है ...
    इंसान सोचता है पर अपने स्वार्थ को भूल नहीं पाता ...

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  5. हृदय की पीड़ा

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