मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ज़ख्मी होकर आज पड़ा
अपनों के बीच अपने लिए
लड़ रहा ज़िंदा रहने के लिए
भूल गए इंसानियत का धर्म
बने आज एक दूसरे के दुश्मन
हाँ मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ना कोई माना ना कोई मानेगा
एकता थी वजूद मेरा
बटा हुआ हूँ आज टुकड़ों में
जातियों के नाम पर
नफ़रत के पैग़ाम पर
अंतिम साँंस गिन रहा
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
मानता है जो मुझे
संवारता जो मुझे
प्रेम बांटता फिरे
उपेक्षित वो इस जहाँ में
अभिशप्त हो जी रहा
मैं स्वयं के हाल पर
मानव की मानसिकता पर
द्रवित हो उठा आज
अश्रू बहाकर देखता
धरा से मिटते खुद को आज
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
***अनुराधा चौहान***
बहुत ही बढ़िया ,यथार्थ ,सादर स्नेह सखी
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी
Deleteयथार्थ !
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुती
धन्यवाद आदरणीय
Deleteसत्य, सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद दी
Deleteवाह!!बेहतरीन!!
ReplyDeleteधर्म से ज्यादा उसका आडम्बर है आज ... इसके आवरण मिएँ सच कहाँ दिखाई देता है ...
ReplyDeleteसार्थक रचना ...
सहृदय आभार ऋतु जी
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भावों का समायोजन सखी धर्म और मानव धर्म पर ।
ReplyDeleteवाह रचना।
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteसही बात। धर्म आज बेबस है और अंतिम साँसें गिन रहा है। सिर्फ आडंबर बचे हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteधन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteबहुत सुन्दर... धर्म बेबस ही तो है धर्माचार्यों के चाल चलता बेचारा....
ReplyDeleteजी सहृदय आभार सखी
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