यह अधूरे ख्व़ाब मेरे
तेरी यादों में दिन-रात भींगे
तुझको इतनी फुरसत न थी
जो कभी मुड़कर भी देखे
गलतफहमियाँ थी यह मेरी
जिन्हें मैं पाल बैठी थी
जो ख्व़ाब सजाए थे आँखो में
उन्हे सच मान बैठी थी
बैरन निंदिया आँखो से ओझल
मैं तन्हाई से बातें करती थी
पल-पल बिखरते ख्व़ाबो के
टुकड़ों को समेटा करती थी
चाँदनी रातों में झांँकती झरोखे से
जाने कितनी रातें निकलीं
आँखो ही आँखो में
टूटते तारे सी आज मेरी ज़िंदगी
कब टूट कर बिखर जाऊँ
मुझको ही खबर नहीं
जी रहीं हूँ तुझ बिन यह कैसी ज़िंदगी
ज़िंदा होकर भी आज मैं ज़िंदा नहीं
जाने कितनी बार गुजरी मैं तेरी गलियों से
पूछती थी पता फूलों और कलियों से
फुरसत मिले कभी आकर तू देख जरा
आज भी करती वहीं इंतजार मैं तेरा
***अनुराधा चौहान***
इन्तजार की इन्तहा से गुजरते मन की विरह व्यथा का मार्मिक शब्दांकन प्रिय अनुराधा जी | सस्नेह
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (6-04-2019) को " नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं " (चर्चा अंक-3297) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
अनीता सैनी
बेहद भावपूर्ण एवं मन की गहराई से लिखी गयी रचना... हृदयस्पर्शी 👌👌
ReplyDeleteसहृदय आभार तनु जी
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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