मची है खींचातानी
हर तरफ शोर है
कहीं नहीं है शांति
जीवन में बड़ा झोल है
उलझनें यह कैसी
सुलझती नहीं है
थक गई हूं मैं बहुत
एकांत चाहती हूं
जिंदगी में अब थोड़ी
शांति चाहती हूं
बदल गया है कुछ कुछ
बहुत कुछ वहीं है
नीतियां वही पुरानी
दम घोंटने लगी हैं
सबकी अलग डफ़ली
वही पुराना राग है
उलझा उसमें बेचारा
आज का आम इंसान है
देश के कर्णधारों अब तो
तस्वीर तुम सुधार लो
छोड़कर मतलबपरस्ती
इंसानियत उधार लो
कैसे बंद रखे हम
आंखों ओर कान को
बड़े व्यथित करते हैं
होते जो कांड रोज
उलझ गया है इंसान
इनकी मायावी चालों में
उलझनें भी ऐसी जो
सुलझती नहीं है
थक गई हूं मैं बहुत
एकांत चाहती हूं
जिंदगी में अब थोड़ी
शांति चाहती हूं
***अनुराधा चौहान***
veey very nice
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय राहुल जी
Deleteसमय परक एक सीधा सवाल और व्यथित मन की गुहार ।
ReplyDeleteबहुत सार्थक यथार्थ रचना ।
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/10/2018 की बुलेटिन, ग़ज़ल सम्राट स्व॰ जगजीत सिंह साहब की ७ वीं पुण्यतिथि “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय मेरी रचना को स्थान देने के लिए
Deleteवाह!!बहुत खूबसूरत रचना!!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शुभा जी
Deleteथक गई हूं मैं बहुत
ReplyDeleteएकांत चाहती हूं......
इस जीवन को हमारी ही हाथों बिगाड़ी गई कुव्यवस्था तथा मतलबपरस्ती ने परेशान किया हुआ है। इस पर कुठाराघात करती अच्छी रचना। बधाई ।
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteशांति तो जैसे खुदा हो गयी
ReplyDeleteढूढने से तो मिलती ही नही.
उलझ को छोड़ कर जा भी तो नहीं सकते.
सुंदर रचना.
हद पार इश्क
धन्यवाद आदरणीय रोहिताश जी
Deleteबहुत सुंदर।👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत बहुत आभार श्वेता जी
ReplyDeleteबहुत खूब 👌
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुंंदर रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
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