धरती के बिछौने पर
आसमांँ की चादर ओढ़े
थर-थर काँंपता
बचपन फुटपाथ पर
भूख से तड़पता
दो रोटी की आस में
अमीरों के शहर में
उन्हें दिखते यह दाग से
कूड़े के ढेर पर
ढूंढते रोटी के टुकड़े
इस संसार का
एक यह भी जीवन है
जर्जर काया लिए
अभाव में तरसते
झेलते गरीबी का दर्द
रोजी-रोटी को तलाशते
सांझ को निढाल हो
फिर भूख को ओढ़कर
करवटें बदलते हुए
गरीबी ज़िंदगी का
बदनुमा दाग बन
लील जाती ज़िंदगियांँ
न खाने को भोजन
न इलाज की सुविधा
एक दिन वहीं सड़क पर
लाश बनकर पड़े रह जाते
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
चित्र गूगल से साभार
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 14 फरवरी 2019 को प्रकाशनार्थ 1308 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteदारुण चित्र उपस्थित करता सटीक सार्थक लेखन ।
ReplyDeleteअप्रतिम।
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteदिल दहलाने वाला एक शाश्वत सत्य !
ReplyDeleteश्वानों को मिलता दूध-वस्त्र,
भूखे बच्चे, अकुलाते हैं.
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर,
जाड़े की रात बिताते हैं.
युवती के लज्जा-वासन बेच,
जब ब्याज चुकाए जाते हैं.
मालिक तब तेल-फुलेलों पर,
पानी सा द्रव्य, बहाते हैं.
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteअत्यंत मार्मिक रचना अनुराधा जी..मन विहृवल हो उठा।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी
Deleteबहुत ही मार्मिक हृदयस्पर्शी रचना....
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सखी
Deleteशाश्वत सत्य | बहुत ही मार्मिक ह्रदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteसादर