खड़ा हूँ निष्प्राण-सा
बिल्कुल अकेला
नहीं लगता अब
मेरे पास कोई मेला
गर्व था कभी बहुत
हरी-भरी काया पर
विशाल घना घेरा
ठंडा शीतल बसेरा
बैठते पथिक जब
मेरी ठंडी छाया में
एक दंभ महसूस
करता में अपनी शान
सूरज की किरणों को
रोक लेता में पुरजोर
बारिश के वेग का
नहीं चलता था मुझ पर जोर
पक्षियों का मैं बसेरा
उनके कलरव से गूंजता सबेरा
जब चलती तेज हवाएं
मेरी शाखाओं को हिलाती
पत्तियों से टकराकर
मधुर संगीत-सा सुनाती
अब खड़ा ठूंठ बनकर
मिटने वाला है मेरा वजूद
यादें अतीत की सताती
हवाएं भी नहीं सहलाती
भूले से भी नहीं बैठते पंछी
सिर्फ जरूरतमंद पास आते
तोड़ डालियां चूल्हे जलाते
मेरी व्यथा को और बढ़ाते
मेरी व्यथा को और बढ़ाते
सबको मेरे गिरने का इंतजार
सूखा वृक्ष हूंँ मैं बिल्कुल बेकार
***अनुराधा चौहान***
इंसान बहुत स्वार्थी है जो देता है उसी के आस पास मंडराता है बहुत अच्छी रचना |
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteसूखा वृक्ष हो या वृद्धावस्था इसी तरह लाचार हो जाते हैं अपनी महत्वहीनता पर....अतीत की स्मृतियाँ ही शेष बचती हैं...
ReplyDeleteबहुत लाजवाब रचना...
बहुत बहुत आभार सखी
Deleteधन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteढलते सूरज को कोई सलाम नहीं करता. जब तक काम के हैं तभी तक पूछ है. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहार्दिक आभार सुधा जी
Deleteबहुत हृदय स्पर्शी सच है सब स्वार्थ पूर्ति हेतू ही होता है इस संसार में जो किसी काम न आ सके वो ठोकरों में आ जाता है।
ReplyDeleteसटीक।
यथार्थ।
सस्नेह आभार सखी
Deleteबहुत सुन्दर सृजन अनुराधा जी ।
ReplyDeleteसहृदय आभार सखी
Deleteबहुत ही सुन्दर सृजन प्रिय सखी
ReplyDeleteसादर
सहृदय आभार सखी
Deleteसहृदय आभार यशोदा जी
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