(चित्र गूगल से साभार) |
आज विचलित हो उठा मन
देख कर कुछ ऐसा मंजर
यह कैसी लहर चली है
बुढ़ापे में अकेले छोड़ देते हैं
यह कैसी कलयुगी संतानें हैं
निर्दयी निष्ठुर भावना से परे
नहीं कोई दया
नहीं कोई करूणा
जिन्हें किसी का डर नहीं
असहनीय कष्ट देते
अपने जनक को
भूल गए उनके त्याग को
आज विचलित हो उठा मन
बढ़ती उम्र की लाचारी
देख संतान की कठोरता
हो जाते मजबूर
भूल गए ममता उनकी
भूल गए वो कष्ट
जो उन्हें सुखी करने के लिए
मां बाप ने झेले थे
बेदखल कर देते घर से
तोड़ देते हैं स्वप्न
जो उन्होंने संजोए थे
मन्नतों से पाया था जिसे
खरोंच जरा भी आती थी
तो फूट फूट कर रोते थे
आज उन्हीं बच्चों के दिए दर्द से
फिर फूट फूट कर रोते हैं
उफ ये कैसी निर्दयी संतानें हैं
देख के उनका यह रूप
आज विचलित हो उठा मन
*** अनुराधा चौहान***
मार्मिक रचना सत्य को प्रकट करती है
ReplyDeleteधन्यवाद अभिलाषा जी
Deleteये एक कड़वी हक़ीक़त बनती जा रही है आज की ...
ReplyDeleteसंवेदनहीनता बढ़ती जा रही है ... रिश्तों की अहमियत ख़त्म ...
सच की रचना ...
सादर आभार आदरणीय सत्य कहा आपने
Deleteहकीकत बयान करती सार्थक रचना
ReplyDeleteकडवी है पर हकीकत है जिसे बदलना जरूरी है
जी सही कहा आपने नीतू जी सादर आभार
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ReplyDeleteअवश्य आदरणीय 🙏
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद लोकेश जी
Deleteआज का सच .....
ReplyDeleteजी सही कहा रेवा जी सादर आभार
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