एक बादल का टुकड़ा
खेलता आँख-मिचौली
कोशिश करता रहा
सूरज को ढकने की
फिर चुपचाप चल दिया
हवाओं के साथ जा पंहुचा
घटाओं से घुलने-मिलने
बरसना चाहे पर बरसता नहीं
धरा की तपन पर तरस खाता नहीं
मन में आशा को जगाए
कभी उड़ जाए फिर लौट आए
शरारती बच्चे की तरह
लुका-छिपी का खेल दिखाए
आसमान में लगाए जमघट
कभी दामिनी से लड़कर
कभी राह से भटककर
होकर व्याकुल लगता बरसने
फिर चल देता कोई राह पकड़
आसमान का आँचल छोड़
आँखों में सपने देकर
शायद फिर लौट आए बादल
इस बार संग अपने बारिश लेकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
चित्र गूगल से साभार
बादल वापस आते हैं बारिश की बूँदें ले कर ... धरती की प्यास बुझाने ...
ReplyDeleteकुछ सपे जगाने ...
सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteलुका-छिपी का खेल दिखाए,
कब तक कोई आस लगाए.
बैरी बदरा क्यों तरसाए,
धरती सूखी, बरस भी जाए.
बहुत सुंदर सखी ¡
ReplyDeleteतपती धरा भी बादलों को आस लिये देख रही है प्यासी दरकी दरकी।
सस्नेह आभार सखी
Deleteसहृदय आभार ऋतु जी
ReplyDeleteवाह! ,सखी ,बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसहृदय आभार सखी
Deleteबहुत सुन्दर👌👌
ReplyDeleteसहृदय आभार मीना जी
Deleteसहृदय आभार दी 🌹
ReplyDeleteवाह !सखी अनुराधा जी , ये तो मेरे शहर के आज के मौसम का हाल लिख दिया आपने | बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी |
ReplyDeleteसहृदय आभार प्रिय सखी
Delete