सुबह-सवेरे छोड़ बसेरा
ढूंढते फ़िरे अन्न का दाना
लौटकर आए अपने ठिकाने
नहीं मिले उनको आशियाने
ढूँढते आशियाने के निशान
उदास हो व्याकुल नयन
मानव कर गया अपना काम
पेड़ का मिटा नामोनिशान
करता प्रकृति के सीने पर प्रहार
ज़िंदगी को मानव रहा है हार
वृक्ष बिना धरती आग उगलेगी
कैसे फ़िर शीतल हवा बहेगी
सीने पर लेकर जख्मों के निशान
मानव कृत्य से हारी धरा
छिनते आशियाने मरते परिंदे
मूक जीव यह मानवीय कहर से
कहीं बिगड़ न जाए यह संतुलन
मिट न जाए कहीं परिंदों का जीवन
मत काटो वृक्ष अब रुक जाओ
मत धरा को जीवनहीन बनाओ
उड़ने दो चहकने दो
पक्षियों के पेड़ों को रहने दो
हरियाली की ओढ़ कर चादर
पक्षियों के पेड़ों को रहने दो
हरियाली की ओढ़ कर चादर
सजने दो इस धरती को
***अनुराधा चौहान***
बहुत प्यारी कोमल भावों वाली रचना सखी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार प्रिय सखी
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