पत्थर था वो बेकार-सा
राह में खाता ठोकरें
व्यथित होता रहा
अपनी दुर्दशा देखकर
पड़ा हाथ मूर्तिकार के
छेनी,हथौड़ी की चोट से
होता रहा दिन-रात छलनी
सोचता भला था मैं वहीं
रास्ते का पत्थर बना
अब गढ़ा जा रहा हूँ
मैं न जाने किस रूप में
टूट-टूट बिखरता
छोटे-छोटे स्वरूप में
हुआ सृजन सुंदर बड़ा
रूप निखरा पत्थर का
मिलने लगा स्पर्श
मुझको कोमल हाथों का
तकलीफों का परिणाम मिला
मन को बड़ा आराम मिला
तारीफ़ मिली इस रूप की
चोट सह-सहकर ही सही
रूप ही तो निखरा मेरा
हूँ तो मैं पत्थर वही
किस्मत के खेल देखो
जो मारते रहे ठोकर मुझे
चरणों में शीश झुकाकर
सब करने लगे नमन मुझे
एहसास हुआ मुझे दिया है
ईश्वर का कोई सुंदर रूप
आज़ देखो मुझ पत्थर पर
सब चढ़ा रहे हैं कोमल फूल
***अनुराधा चौहान***
वाह !
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सन्देश देती कविता
लाजवाब सृजन
🙏🙏🙏
धन्यवाद रवीन्द्र जी
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteगले में भले ही आज हार पड़ें, छेनी, हथौड़े की चोट फिर भी याद रहती है.
सही कहा आपने सहृदय आभार आदरणीय
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