झरे पात से बिखरे सपने
हृदय पीर नयनों से बरसे
बैर लगाए मुझसे सावन
लगता था यह कभी मनभावन
लगता था यह कभी मनभावन
उमड़-उमड़ कर यादें उभरी
गरज-गरज के यादें बरसी
किस्मत की जब मार पड़ी
छूटी हाथों से रेशम लड़ी
छूटी हाथों से रेशम लड़ी
शूल हृदय के पार हुआ जब
समय भी रुक जाता है सहम
समझ न आया जीवन लेखा
समय भी रुक जाता है सहम
समझ न आया जीवन लेखा
दर्द मिला जब ये अनदेखा
झरते पात से झर गए सपने
पल भर में जब छूटे अपने
सावन सूना मन भी सूना
बागों में पड़ा झूला सूना
पीर हृदय की मिट नहीं
राखी की रौनक दिखे नहीं
नहीं भाती है घटाएँ घनघोर बड़ी
न बूँदों की थिरकन न रिमझिम लड़ी
गरजी दामिनी पर दिल न धड़के
आँख मेरी रह-रहकर फड़के
आँख मेरी रह-रहकर फड़के
अरमानों के झरते पात सी
सूखे ठूठ-सी हुई जिंदगानी
मैं विरहन विरह में तड़पती
सावन-सी बदली न मन भाती
डोले मन का पपीहा प्यासा
बोले बस यादों में चेहरा
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
"अरमानों के झरते पात से
ReplyDeleteसूखे ठूठ-सी हुई जिंदगानी"...अतुलनीय बिम्ब के साथ सराहनीय रचना ...
आपका हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteहृदयस्पर्शी रचना अनुराधा जी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार मीना जी
Deleteवाह!!बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सखी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
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