वो चल दी थी
जीवनसाथी का थाम के हाथ
करती रही मनमानियाँ पूरी
चाहतों को मारकर
ख्व़ाबों को रौंदकर
ऊपर से खिली-खिली
अंदर से मुरझाई-सी
जोड़ती गई ज़िंदगियाँ
अपनी ज़िंदगी से
पालती-पोषती
रिश्तों को संभालती
रिश्तों को संभालती
सरक रही थी ज़िंदगी
बढ़ती उम्र ने दस्तक दी
बढ़ती उम्र ने दस्तक दी
बुढ़ापे की दहलीज पर
आकर खड़ी
जिस संग नाता जन्मों का
बाँध के चली थी
उम्र की दहलीज पर
टूटी वो कड़ी थी
जीवनसाथी ने छोड़ा साथ
आकर खड़ी
जिस संग नाता जन्मों का
बाँध के चली थी
उम्र की दहलीज पर
टूटी वो कड़ी थी
जीवनसाथी ने छोड़ा साथ
जीवन हुआ नर्क
उसे देने दो वक़्त की रोटी
बच्चों भी लगाने लगे शर्त
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
यथार्थ
ReplyDeleteमार्मिक
अप्रतिम रचना
सादर 🙏
हार्दिक आभार रवीन्द्र जी
Deleteहृदय स्पर्शी रचना सखी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteअति उत्तम सखी।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteयथार्थ इंगित करती रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी
Deleteबहुत सुन्दर मार्मिक.... यथार्थ बयां करती रचना..
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रिय सुधा जी
Deleteहृदय स्पर्शी
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