फिके पासे चले थे दाँव
जुए में हारा था सम्मान
फँसे सब जाल में ऐसे
निकलें तो किधर कैसे
लगा दी दाँव पे नारी
बने सभी अत्याचारी
दुशासन हाथ में सौंपी
जुए में हारकर नारी
बँधे वचनों से थे बैठे
पितामह पलकों को मूँदे
पकड़ केशों को खींची थी
बेचारी नार अबला थी
पुकारा जार-जार रोकर
हवाला रिश्तों का देकर
बँधी आँखो में पट्टी थी
रोती सभा में द्रोपदी थी
सुनो विनती चले आना
भरोसा तुमपे अब कान्हा
यहाँ बैरी बने हैं अपने
टूटकर बिखर गए सपने
बढ़ाया चीर कृष्णा ने
निभाया सच्चा था रिश्ता
छल के जाल में फँसी
पांडवो की मर्यादा
चले कई दाँव दुर्योधन ने
कोई भी काम न आया
महाभारत युद्ध भयंकर था
भाई के समक्ष खड़ा भाई
धर्म का मार्ग जो रोका
बने फिर सारथी कान्हा
जिताकर युद्ध पांडवों को
कर्म की राह सिखलाई
*** अनुराधा चौहान***
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