दिल से इक आवाज़ आई
क्यों ओढ़ ली तूने तन्हाई
क्या मज़ा है चुप-चुप जीने में
कुछ दर्द छुपा क्या सीने में
फिर मन ने भी आवाज़ लगाई
कितनी सुहानी सुबह है आई
क्यों रोकर इसको खोते हो
क्यों नहीं खुल कर जीते हो
सुन कर दिल की आवाज़े
खोले फिर मन के दरवाजे
प्रकृति की मोहक सुंदरता
देख बहने लगा भावों का झरना
सूरज की चमकती किरणों से
जब धरती ने अंगड़ाई ली
मन में उठते विचारों ने फिर
बन कविता अंगड़ाई ली
सुन कर प्रकृति की आवाज़ें
कहीं कोयल कूके,हवा चले
हिलते पेड़ों की सरगम बहे
कल-कल करती नदियाँ बहें
अब तक खुद में खोया हुआ
इन आवाजों से दूर रहा
ख़ामोश बहारें सुंदर नजारे
ख़ामोशी से आवाज़ लगाते
कितना कुछ कहती यह घाटियां
ऊंँची सुंदर पर्वतों की चोटियांँ
सुनना है अगर इनकी आवाज़ें
मन में सुंदर एहसास चाहिए
शोर-शराबा,हल्ला-गुल्ला
यह कान फोड़ती आवाज़ें
इन सब से तो अच्छी होतीं
ख़ामोश प्रकृति की आवाज़ें
***अनुराधा चौहान***