प्रकृति करे अब मनमानी,
जीवन रोता रोना है।
ज़िंदगी सबका लील रहा,
जग फैला कोरोना है।
वन विहीन किया धरती को,
नदियों के जल को मैला।
पलटवार अब करे प्रकृति,
कर्मो का ये है खेला।
त्राहि-त्राहि मची हर ओर,
सुखी नहीं कोई कोना है
ज़िंदगी सबका लील रहा,
जग फैला कोरोना है।
दबे पाँव बिन आहट के,
तांडव करती मौत खड़ी।
कोई आहट सुन न सका,
टूट रही है साँस कड़ी।
थोड़ी की लापरवाही,
फिर जीवन को खोना है।
ज़िंदगी सबका लील रहा,
जग फैला कोरोना है।
बंद घरों में बैठे अब,
देखो सब लाचार हुए।
काल खड़ा दर नाच रहा,
सभी हाल बेहाल हुए।
कैसी कठिन घड़ी आई,
अब जाने क्या होना है।
ज़िंदगी सबका लील रहा,
जग फैला कोरोना है।
मजबूरों लाचारों का,
अब जीवन बेहाल हुआ।
अन्न नहीं है खाने को,
काम-काज भी बंद हुआ।
करे पलायन पैदल घर,
दूर नहीं अब रहना है।
ज़िंदगी सबका लील रहा,
जग फैला कोरोना है।
अनुराधा चौहान 'सुधी' स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार