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Saturday, December 19, 2020

भूल गए वो


खून-पसीना एक करके
तिनका-तिनका जोड़ा
प्यारा सा सुंदर घरौंदा
अपनों ने ही तोड़ा
हाथों से सहला दुलराते
दीवारों को सजाया
भरा प्रेम का रंग अनोखा
रिश्तों के संग बसाया
कल तक गोद में रहते सिमटे
भूल गए वो बालक
आज बिखरते रिश्ते सारे
बोझ बने हैं पालक
रुला रहे हैं खून के आँसू
अब अपने ही जाए
बूढ़ी होती दुर्बल काया
कहीं ठौर न पाएं
कलयुग की यह कैसी लीला
औलाद पिता पर भारी
जीते जी माँ की छाती पर
संतान चला रही आरी
करनी कुछ कथनी है झूठी
सोशल मीडिया दिखाते
लाइक कमेंट का शौक लगाए
झूठी सेल्फी सजाते
सच यही इस जीवन का
 बाकी सब छलावा
मात-पिता को प्रेम के बदले
मिलता है सदा दिखावा।
©®अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️ 
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 15, 2020

चित्र से आभास तेरा


 बंद पलकों में तेरा जब
रूप आकर झिलमिलाता।
नीर की फिर बूँद बनकर
नैन भीतर ठहर जाता।

प्रीत के अहसास मन को
सींचते हैं आस बनकर।
और अंकुर बन पनपते
भावना के बीज झरकर।
चित्र से आभास तेरा
स्पर्श आलिंगन कराता।
बंद पलकों में………

दूरियाँ यह कब मिटेगी
रात दिन ये सोचता मन।
साँझ ढलते पीर बढ़ती
बीत जाए न यह जीवन।
बादलों में चाँद छुपकर
रोज मन को है लुभाता।
बंद पलकों में………

सूखकर बिखरे कभी जो
फूल माला में जड़े थे।
प्रीत बन महके अभी वो
टूट धरती अब पड़े थे।
एक झोंका फिर हवा का
नींद से आकर जगाता।
बंद पलकों में………
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार

Thursday, December 10, 2020

लोभ बिगाड़े संरचना


मानवता को आज मिटाकर
निर्धन का अपमान किया।
मार गरीबों को फिर ठोकर 
अनुचित ही यह काम किया।

दीन हीन को ठोकर मारे
भूल रहे सच्चाई को।
बढ़ी हुई जो भेदभाव की
पाट न पाए खाई को।
मँहगाई ने मूँह खोलकर
निर्बल को लाचार किया।

बढ़ी कीमतें कमर तोड़ती
रोग पसारे पाँव पड़ा।
काम काज कुछ हाथ नहीं जब
रोज खड़ा फिर प्रश्न बड़ा।
किस्मत ने भी धोखा देकर
जीवन में अँधकार किया।

लाभ उठाए लोभी पल पल
देख नियति की यह रचना।
लूट रहे सब बन व्यापारी
लोभ बिगाड़े संरचना।
दूध फटे का मोल लगाया 
ऐसा भी व्यापार किया।

*©®अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*
चित्र गूगल से साभार

Sunday, December 6, 2020

कब जाने


 जबसे दुनिया में आँख खुली

जन्म का मतलब भी न समझा

चाहतों के बोझ तले

दब गया जीवन का सपना

पल हरपल पल-पल भाग रहा

कुछ सोया सा कुछ जाग रहा

सफर ज़िंदगी का अनवरत

आकांक्षाओं के जन्म से त्रस्त

कुछ टूटे सपनों के भ्रम से

कहीं थके कदम बढ़ती उम्र से

कभी रुके,कभी बेहाल हुए

कभी सच्चाई से दो-चार हुए

ढलते दिन और अनगिनत बातें

बीत गईं जाने कितनी रातें

कब सुनी थी याद नहीं लोरी

टूूूट रही साँसों की डोरी

गुम हुए जीवन के मोती

आँखों की बुझती है ज्योति

कल जन्में आज मरेे

जैैसे शाख से फूल झरेे

आशाओं के सावन से

कब रस बरसे मनभावन से

समय चक्र के चलते-चलते

जीवन के पल रहे ढलते

रह जाते बस शिकवे गिले

इंसान कब शून्य में जा मिलेे

©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

चित्र गूगल से साभार 

Tuesday, November 3, 2020

करवाचौथ


 चाँद खिला अम्बर के आनन
देख सुहागिन हर्षाती।
चूड़ी,बिंदी पायल खनकी
माथे सिंदूर सजाती।

पहन ओढ़नी करती पूजा
सौभाग्य सदा अमर हो।
खुशबू से महके घर आँगन
सदा सुहागिन का वर दो।
सुन बसंत की आहट जैसे
कोयल भी गीत सुनाती
चाँद खिला अम्बर……

महकी हाथों की मेहंदी
बालों में गजरा महका।
माँग सजाए मंगल टीका
चंदा का मन भी चहका।
रचा महावर चली सुहागिन
खुशियों से फिर इठलाती।
चाँद खिला अम्बर……

करवाचौथ दिवस यह पावन
गीत गूँजते घर-घर में।
खुशियाँ सबकी झोली भर दो
दीप लिए गाती कर में।
अर्घ्य चढ़ाएं मंगल गाएं
छलनी से दीप दिखाती
चाँद खिला अम्बर……
*©®अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*

Wednesday, October 28, 2020

मानव ही दानव


 पाप बढ़ा धरती पे भारी
कलयुग पाँव पसारे।
नारी तन की करे प्रदर्शनी
बेटा बाप को मारे।

सच्चाई पड़ती महँगी
झूठ बढ़ाता शान।
इंसानियत सिसकती कोने
हँसते जग बेईमान।

धर्म कराहे लंगड़ा होकर
अधर्म सिंहासन बैठा।
द्वेष भावना मन में पाले
अपनों से रहता ऐंठा।

एक द्वेष की फिर चिंगारी
रिश्ते पल में सुलगते।
नारी के आँचल में पलकर
नारी तन ही कुचलते।

प्रीत दिखावे में लिपटी
जिव्हा भी मिसरी बोले।
पीछे पीठ पर घात करें
और जहर ज़िंदगी घोले।

मानव की कैसी ये लीला
विनाश पथ ही चलता।
जीवन संसाधन को मिटाने 
मानव में दानव पलता।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, October 21, 2020

नागफनी


 सूने आँगन में
पनपी नागफनी।
जीवन की राहें
बिखरी आस कनी।

उड़ती है अम्बर
धुआँ द्वेष रेखा।
पल भर में बदला
काल रचा लेखा।
प्रीत पुरानी सब
भूले आज मनी।

पलटी किस्मत जब
स्वप्न राख ढेरी।
चुभते कंटक से
राह खड़े बैरी।
आज तोड़ते सब
चुभती जो टहनी।

चलो बदल डाले
जगती की रचना।
सुंदर सृजन की
फिर हो संरचना
हर्षित होगा मन
महकेगी अवनी।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Sunday, October 11, 2020

दूरियाँ


दूरियाँ दिल में बढ़ी है
रोज बढ़ते फासलों से।
बेवजह लिपटे रहे हम
झूठ के ही आँचलों से।

द्वेष का उठता धुआँ तब
रक्त बहता नीर बन के।
आँख से मरती शरम भी
खींच उठते चीर तन के।
पीर बरसे नीर बन फिर
 व्यर्थ बढ़ते चोंचलों से।‌
दूरियाँ दिल...

सो रहे सब नींद कैसी
काल आकर के खड़ा है।
रोज होते देख झगड़े
जान के पीछे पड़ा है।
थरथराती है धरा भी
रोज आते जलजलों से।
दूरियाँ दिल...

भावनाएं रोज मरती
शब्द चुभते तीर जैसे।
जेब अपनी भर रहे हैं
छोड़ बैठे प्रीत कैसे।
व्यर्थ की बातें निकलती
बेवजह की अटकलों से।
दूरियाँ दिल...
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Friday, October 2, 2020

पदचिह्न

पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
भीषण काल करे अट्टहास 
डर से काँपे सब जनता।

दरवाजे पर कुंडी लटकी
लगे दुकानों पर ताले।
काम छिना लाचार हुए सब
चले लिए पग में छाले।
मरें भूख से जीव तड़पते
एक शाप है निर्धनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।

माँ के आँचल में शिशु लिपटा
दूध पान मनुहार करे।
मृतक देह से सिसके लिपटा
मृत माँ कैसे पेट भरे।
भूख छीनती साँसे पल पल
प्रभु कैसा कोप उफनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।

कोमल नन्हे बाल सलोने
घनी धूप तपती काया।
चले राह में भूख सताती
कैसी प्रभु रच दी माया।
निर्बल नयन नीर की धारा
मन दुविधा रोज पहनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
©®अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, September 23, 2020

बावरा मन

 
बावरा मन मूँद पलकें 
साँझ ढलती देखता है।
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है।
साँझ ने चादर समेटी 
चाँदनी झाँकी धरा पे।
चाँद ढलती देख काया
कह रहा पीड़ा जहाँ से
समय रहता न एक जैसा
क्यों डरे किसी बला से
जो जिया इक दिन मरेगा
लौट फिर आएगा वापस
रूप बदले रीत बदले
इक नया संसार पाकर
समय यह रुकता नहीं है
यह तो चलता है सदा से
बावरा मन मूँद पलकें
राज गहरे सोचता है
भोर भी होती रही है
साँझ भी ढलती रही
उम्र की परछाइयाँ भी
बनी औ बिगड़ती रही
नींद गायब है नयन से
पथ कंटीले ज़िंदगी के
सूनी पड़ी इन वादियाँ में
स्वप्न‌ निर्बल के पड़े हैं
झील के फिर अक्स जैसे
एक पल में वो मिटे थे
शूल से चुभते हृदय में
आह बन के वो बहे थे
देखता रहा मौन बैठा
यह उठा कैसा धुआँ था
हर तरफ है मौन पसरा
जीव भी हरपल डरा-सा
बावरा मन मूँद पलकें
साँझ ढलती देखता है
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, September 17, 2020

पाती तेरे नाम लिखी

भावों के मोती चुन-चुन के
पाती तेरे नाम लिखी।
चूड़ी,पायल कंगन खनके
जले दीप बिन शाम लिखी।

तरुवर की शाखों से उड़के
आँगन मेरे पात झरे।
दूर गगन में चंदा चमके
तारे जगमग रात करे।
पंथ निहारूँ द्वार खड़ी मैं
 एक यही बस काम लिखी।
भावों के मोती......

लता पेड़ से लिपटी जैसे,
वैसे ही यह प्रीत बढ़े।
रोक सके न राह कोई अब,
पल-पल ऊँची रीत चढ़े।
लिख-लिख हारी दिल की बातें,
हृदय नहीं आराम लिखी।
भावों के मोती......

सिंदूरी संध्या बीत चली
चाँद गगन में चढ़ आया।
पीपल पात झूमते डाली
देख अँधेरा गहराया।
दीपक लौ में जले पतंगा
बात यही निष्काम दिखी।
भावों के मोती...
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Thursday, September 10, 2020

कैसा सावन

कैसा सावन बिन भैया के
चुभती है शीतल पुरवाई।
छूट गया पीहर कब पीछे
जग ने कैसी रीत बनाई।

सावन का झूला जब देखा
पीर नीर बन के झरती थी।
लिखने बैठी तुझको पाती
यादें बचपन की भरती थी।
झूला छूटा गुड़िया छूटी
बहना भी अब हुई पराई।
कैसा सावन बिन भैया के
चुभती है शीतल पुरवाई।।

रंग-बिरंगी रेशम डोरी
मैंने दिल की हर आस बुनी।
व्याकुल नयना बाट निहारें
तेरी कहीं न आवाज सुनी।
सुन भाई यह रक्षाबंधन
बिन तेरे लगता दुखदाई ‌।
कैसा सावन बिन भैया के
चुभती है शीतल पुरवाई।।

बँधी हाथ में रेशम डोरी
पर्व बड़ा पावन मनभावन।
बहना राखी लिए हाथ में
भीग रहा है यादों में मन।
पीर हृदय की बढ़ती जाती 
बहना की आँखें भर आई।‌।
कैसा सावन बिन भैया के
चुभती है शीतल पुरवाई।।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, September 5, 2020

ताने-बाने

राज कई जीवन से लेके
बुनती हूँ ताने-बाने।
आस पिरोती माला बुनती
सपने जाने पहचाने।

भाव उमड़ते कभी बिगड़ते
एक नया आकार लिए।
झूठी इस जीवन माला ने
रूप कई साकार किए।
मौन जगत की भाषा की क्या
बेचैनी कोई जाने।
राज कई.....

नहीं खनकती हैं अब चूड़ी
सुन बसंत की आवाजें।
सावन भी अब रौनक खोता
द्वेष भरे बजते बाजे।
खुशियों पर दिखावटी परतें
बात सभी अब ये माने।
राज कई.....

प्रेम प्यार की भाषा भूले
यह मेरा है वो तेरा।
प्रीत भरी माला भी बिखरी
छलिया सा ओढ़ चेहरा।
मुख पर मीठी वाणी बोले
पीछे से देते ताने।
राज कई.....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, August 30, 2020

नारी बिन संसार अधूरा

सूनी कोख लिए चुप सिसके
बैठी कोने बनी वियोगी।
आँचल माँ का सूना करते
बने हुए हैं कैसे रोगी।

सपने कितने नयन बसाए
हाथों से वो वस्त्र सिली थी।
ममता से सहलाती हर पल
मन को कितनी खुशी मिली थी।
अभी कोख में करवट ली थी
टुकड़े होकर रोई होगी।
सूनी कोख.....

एक फूल की आशा लेकर
जीवन में बस काँटे बोते।
आँगन की कलियाँ को फेंके
खुशियों को जीवन से खोते।
कुरीतियों की भेंट चढ़ी वो 
कैसे माँ कष्टों को भोगी।
सूनी कोख.....

बिना कली कोई फूल बना
इतनी मानव को समझ नहीं।
यही सृष्टि की बनी रचियता
जीवन का है कटु सत्य यही।
नारी बिन संसार अधूरा
बने फिरेंगे फिर सब जोगी।
सूनी कोख.....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Friday, August 28, 2020

ढलती शाम

 कुछ करले बातें हम अपनी
यह जग रैन बसेरा है।
कब टूटे साँसों का बंधन
उठ जाए ये डेरा है।

बीत गए हैं कितने सावन
कितने ही मधुमास गए।
क्यों सोचे उनके बारे में 
जो हमको ही भूल गए ।
अब ये पल हम दोनों के है
किस चिंता ने घेरा है।
कुछ कर ले...

बीत रही जीवन की संध्या
दिन अपनों पे वार दिए।
बची हुई गिनती की साँसे
चल हाथों में हाथ लिए।
सब पर खुशियाँ खूब लुटाई
बचा साथ अब तेरा है।
कुछ कर ले....

सुलझाते जीवन की दुविधा
आज कहाँ हम आ बैठे।
जिन्हें लगा रखा सीने से
वो कितने बैठे ऐंठे।
छोड़ पुराने दुख को पीछे
पकड़ हाथ बस मेरा है।
कुछ कर ले.....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Monday, August 24, 2020

समय की चाल

समय बदलता कैसी चालें
देख हृदय से पीर झरे।
खोल रही हूँ याद पोटली
नयन नीर की धार गिरे।

कैसी जग की रीत रही है
चमक-धमक में सब उलझे।
तन की सुंदरता ही देखी
गाँठ नहीं मन की सुलझे।
ढके दिखावे की चादर में
कौन कहाँ अब दुख हरे।
समय...

आहट सुनके पीछे देखूँ
पहचाने सब लोग दिखे।
मुख मुस्काती परत चढ़ी है
अंदर बसा न झूठ दिखे।
बदल गई है रीत प्रीत की
मतलब की सब बात करे।
समय...

कल तक जो पीछे चलते थे
दूर दिखाई देते हैं।
चाल चली जीवन ने कैसी
देख कोई न चेते है।
रंग ढंग बिगड़े हैं सबके
कैसे भव से पार तरे।
समय......
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

आस उजाले की

 

भावों के अथाह सागर में
दिल की नैया क्यों खाली है।
सहसा ही जब आँख खुली तो
लगा साँझ होने वाली है।

ढलते-ढलते दिन कहता है
आस उजाले की मत छोड़ो।
सूरज जैसे रहो चमकते
 नित ही समय के संग दौड़ो।
चाँद गगन में चढ़ता देखो
अम्बर से ढलती लाली है।
भावों..... 

बीत रहा है हर क्षण जीवन
खुशियाँ आकर द्वार खड़ी।
स्वप्न महल के रहे सोचते
बीत रही अनमोल घड़ी।
गहरे सागर बीच डोलती
नौका मन की खाली है।
भावों.....

बीत रहे हैं दिन बसंत के
पतझड़ पीछे झाँक रहा।
कर्म करो मत रुको हारकर
तेज गति से समय बहा।
 आशाओं की बारिश लेकर
महक रही हर डाली है
भावों..... 
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, August 12, 2020

मर्यादा के बाँध

विश्वास सदा मन वास करे
आशा के दीप जलाना।
फैलाना जग में उजियारा
अँधियारा दूर भगाना।

कंटक पथ पे वीर चले थे
मन भारत की शान लिए।
कड़ी चुनौती से टकराए
कभी नहीं भयभीत जिए।
अपनी धरती का मान बढ़े
यही राह है दिखलाना।
विश्वास....

वीर सपूतों की जननी ने
पग पग पे संग्राम सहे।
जात पात के झगड़े लेकर
मर्यादा के बाँध ढहे।
जात पात के बंधन तोड़ो
सीख यही है सिखलाना।
विश्वास...

कुंठा मन में वास करे तो
सद्भावों को खाती है।
आपस में मानवता लड़ती
प्रीत खोखली जाती है।
कष्ट सही रोई जब जननी
वीर ढाल बन के आना।
विश्वास...

सदमार्ग पर आगे बढ़ना
निर्बल को संबल देना।
उन्नत भारत की जय गूँजे
सकल विश्व में प्रण लेना।
पाँचजन्य सी शंख नाद कर
वीर भारती बढ़ जाना।
विश्वास....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, August 11, 2020

तू कैसो ढीठ कन्हाई

ओ लाला मेरो
तू कैसो ढीठ कन्हाई।

पूरी और पकवान बनाए
गोकुल वासी भवन बुलाए
जन्मदिवस तेरो खीर बनाई
ओ लाला मेरो..

पूछ रहीं यशुमति मैया
बोलो प्यारे कृष्ण कन्हैया
तूने काहे को माटी खाई।
ओ लाला मेरो..

श्यामा गाय का दूध जमाया
माखन मिश्री भोग बनाया
रखी कटोरे मलाई।
ओ लाला मेरो...

बलदाऊ है सुघड़ सलोना
उसे ही दूँगी माखन लौना 
मुझे भाए न तेरी चतुराई।
ओ लाला मेरो..

नंद बाबा तोहे बहुत बिगाड़े
तू ग्वाल बाल संग भागे दौड़े
मुख माटी लपटाई।
ओ लाला मेरो...

खोला मुख ब्रह्मांड दिखाया
देख यशोदा सिर चकराया
बेसुध होती माई।
ओ लाला मेरो...

लीलाधर की लीला अद्भुत
भाग्यशाली है पूरा गोकुल
कण-कण भेेद छुुुुपाई
ओ लाला मेरो....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Saturday, August 8, 2020

अनु की कुण्डलियाँ

(1)
नारी प्रताड़ना
नारी ऐसी पीड़िता,सहती रहती वार।
झेल मानसिक यातना, पल-पल घुटती नार।
पल-पल घुटती नार।कभी आराम न आया।
माँ-बाबा का स्नेह,कभी ससुराल न पाया।
सहती अनु क्यों कष्ट,नहीं कोई लाचारी ।
मिले इन्हें अधिकार,बढ़ाती गरिमा नारी। 
(2)
दहेज
दादा की ये लालसा,पोते का हो मोल।
माताजी की चाहना,सोने से हो तोल।
सोने से हो तोल,खरा है लड़का सोना।
गाड़ी,नोटों संग,शगुन शादी का होना।
खोले अनु सुन राज,अभी न करेंगे वादा।
बेटी सिर का ताज,दहेज न देंगे दादा।। 
(3)
बेटी की शिक्षा
घर की लक्ष्मी बेटियाँ, कौन सुने अब बात।
बेशक कितने कष्ट हो, करें काम दिन-रात।
करें काम दिन-रात, कभी सम्मान न पाया।
दो कुल की पहचान, सदा ही मान बढ़ाया।
कहती अनु सुन भ्रात, न डालो आदत डर की।
सब मिल करो प्रयास, यही हैं लक्ष्मी घर की।
(4)
पराली से प्रदूषण
अम्बर में उड़ता धुआँ, जली पराली रात।
धुँध की है चादर घनी, छिपती दिखे प्रभात।।
छिपती दिखे प्रभात, सभी का दम है घुटता।
सूझे नहीं उपाय, प्रशासन मौन न छुटता।।
कहती अनु कर जोड़, लगा है मास दिसम्बर।
आज बचाओ भूमि, बचाओ मिलके अम्बर‌।।
(5)
नशा
चढ़ता सिर पे जब नशा,रहे नहीं कुछ याद।
अहम मनुष्य में आ बसा,देता खुद को दाद।।
देता खुद को दाद,नशे से बन आवारा।
गिरता हर घर द्वार,मद्य का वो है  मारा।।
कहती अनु सुन बात,नशे में क्यों तू पड़ता।
देता है बस घाव,नशा जब जमकर चढ़ता।।
(5)
सिगरेट की लत
थोड़ा सा रुतबा हुआ,झट कॉलर ली तान।
होंठों पे बीड़ी धुआँ,मुँह के भीतर पान।
मुँह के भीतर पान,नशे की यही हकीकत।
बीड़ी का गुणगान,कलेजा रहते फूँकत।
मान अनू यह बात,नशा जो पीछे छोड़ा।
बना वही बलवान,बना मन सच्चा थोड़ा।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, August 7, 2020

करम का लेखा

छप्पर फाड़ मिले धन भारी
यही सोच सपनों में खोया।
कनक नदी कल-कलकर बहती
रत्न खेत में जमकर बोया।

धन वैभव के सपने पाले।
आसमान पर उड़ता ऐंठा।
आँख खुली तो गिरा धरातल 
कंटक झाड़ी पे आ बैठा।
नीलांबर से धूल चाटता
टूटे पंख पखेरू रोया।
छप्पर............. खोया।

चढ़ी सुनहरी ऐनक आँखों
कर्म धूप का तेज न देखा।
हाथ पसारे आज खड़ा जब
रोया देख करम का लेखा।
टूटी किश्ती लिए भँवर में
जीवन अपना आज डुबोया।
छप्पर....…........ खोया।

बात बड़ी करनी अति छोटी
चने झाड़ पर चढ़ इतराया।
दो पैसे खीसे में लेकर
रुपए भर का रौब जमाया।
हवा भरे गुब्बारे उड़ता
शूल नियति ने आन चुभोया।
छप्पर....…........ खोया
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, August 5, 2020

घर घर दीप जलाएंगे

ढोल नगाड़े धूम मचाकर 
राम सिया जय गाएंगे।
आस अधूरी होती पूरी
घर घर दीप जलाएंगे।

सदियों से ये संघर्ष चला
आज धर्म फिर विजय हुआ।
अयोध्या की छवि अति सुंदर
खुशी लहर ने हृदय छुआ।
राम पधारेंगे अब अँगना
सारा शहर सजाएंगे।

सरयु किनारे भव्य राम का
मंदिर होगा अति सुंदर।
राम लला तंबू से उठकर
पहुँचेंगे घर के अंदर।
सदियों का वनवास भोग के
राम लला घर आएंगे।

धर्म पताका जब भी फहरी
सतयुग का आरंभ हुआ।
राम हरेंगे सबकी पीड़ा
करो हृदय से यही दुआ।
अयोध्या सजी राम रंग में
मंदिर वहीं बनाएंगे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Tuesday, August 4, 2020

भवसागर में नाव फंसी


काल मुहाने बैठा मानव
चलता है उल्टी चालें
मौत मुँह में खड़ी है दुनिया
फिर भी गलती न माने
महामारी विकराल हो रही
काम-काज सब ठप्प हुए
राजा बनकर जो बैठे थे 
वो राजा से रंक हुए
खाली जेब टटोले फिरते
पड़ी समय की जब लाठी
अर्थव्यवस्था डोल रही है
झुकी हुई लेकर काठी
हाहाकार मचा धरती पर
बड़ी बुरी यह बीमारी
उत्सव रौनक ध्वस्त हुई
कैद घरों में किलकारी
मुखपट्टिका के पीछे छुपती
मुस्कुराहट भी चेहरों की
कोरोना से बचने हेतु
होड़ लगाते पहरों की
स्वार्थ बना जीवन का दुश्मन
दुनिया भर को त्रस्त करे
बेरोजगारी बढ़ती जाती
नौजवान भी पस्त फिरे
विकास गति भी धीमी होती
भवसागर से नाव फंसी
मानवीय करतूतों पर
कैसी किस्मत ने लगाम कसी
अब भी न सुधरे यह मानव
कैसे रोकेगा काल गति।
जल प्लावन, भूकंप झटके
रूप प्रलय का धरा धरी
पहाड़ मिटा पेड़ों को काटे
पर्यावरण विनाश करे
व्यथा धरा की कर अनदेखी
हरियाली का नाश करे
मानवता का बैरी बनता
मानव को ही मार रहा
काल मुहाने बैठा मानव
दानव जैसा रूप धरा
स्वार्थ हुआ जब सिर पे हावी
बनना चाहे जग नेता
बारूदी शतरंज बिछाए
धोखे की चालें चलता
भ्रष्टाचार की चादर ओढ़े
पनप रही है बीमारी
आँखें मूँदे प्रभु भी बैठे
फल-फूल रही है महामारी
निर्धनता बढ़ती ही जाती
गरीब सहे भीषण पीड़ा
बेबस और लाचार परिजन 
कैसे उठाए सबका बीड़ा
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Saturday, August 1, 2020

अंत कलह कर संचारित

तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।
काम वासना सिर चढ़ बैठी
ज्ञान चक्षु को कर वारित।

धरती का सब रूप बिगाड़े 
लूट रहे तरु आभूषण।
हरियाली की चादर हरते
आज बने सब खर-दूषण।
काल ग्रास बनने को आतुर
अंत हुआ अब आधारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

बारूदों के ढेर खड़े कर 
सारी सीमा पार हुई।
कंक्रीटों का जाल बिछाएं
लिए लालसा हाथ सुई।
आँख बाँध के पट्टी बैठे
अपराधी कर विस्तारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

हौले-हौले झटके देती
समझ कहाँ भूला मानव।
लोभ उफनता लावा बनके
ताप बढ़ाता ये दानव।
वन तपस्विनी धरणी तपती
सूर्य मंत्र कर उच्चारित।
तृष्णा कण-कण वास किए है
अंत कलह कर संचारित।

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

मेहंदी भीनी जब महकी

मेहंदी भीनी जब महकी
सावन भी पुरजोर झरा।
तीज त्यौहार संग समेटे
खुशियों से ये माह भरा।

राखी रेशम डोर बनाती
नेह भरा है यह नाता।
हर धागे में आस प्यार की
खुश होवे मेरा भ्राता।
बाबुल भेज दियो भैया को
रहे हमेशा प्यार हरा।
मेहंदी भीनी जब महकी
सावन भी पुरजोर झरा।

सावन का जब झूला डोले
सखियाँ गीत सुनाती हैं।
चुहल भरी पीहर की यादें
हरपल बहुत सताती हैं।
रंग-बिरंगी राखी रचती
गाती मंगल गीत जरा।
मेहंदी भीनी जब महकी
सावन भी पुरजोर झरा।

राखी का त्यौहार समेटे
प्यार भरा अद्भुत नाता।
बहन स्नेह की बारिश है
 वो बने धूप में छाता। 
उजियारा जीवन का भाई
देख ठिठकता तिमिर डरा।
मेहंदी भीनी जब महकी
सावन भी पुरजोर झरा।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 27, 2020

पलक आस संजोई

बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।
भूल गए मोहे सांवरिया
सोच रही है खोई।

पनघट सूने सूनी गलियाँ
चुप हाथों के कँगना।
मुरलीधर ब्रज छोड़ गए हैं
सूने करके अँगना।
पंथ निहारूँ आस लिए मैं
बीज याद के बोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।

कनक धूप में कोमल काया
मोहन झुलसी जाती।
विरह वेदना समझे बदली।
तन को आ सहलाती।
मधुवन में श्रृंगार किए नित
पलक आस संजोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।

व्याकुल नैना खोज रहे हैं
भूला गोकुल ग्वाला।
सावन के हिंडोले सूने
सूना मन का आला।
पानी भरती खाली करती
मटकी फिर-फिर धोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे
श्याम विरह में रोई।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 22, 2020

हृदय पीर की धधकी ज्वाला

सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
छायादार विटप मिटा रहा
मानव पिए स्वार्थ की हाला।

भूकंप,बाढ़,काल खड़ा है
प्रलय सुनाए अपनी आहट।
तरुवर मिटते फटती धरती
बढ़ती जाती मन अकुलाहट।
रोज नया रोग जन्म लेता
कैसा है ये गड़बड़ झाला?
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।

जीव-जंतु की जीवनदात्री
वसुधा ही सब में प्राण भरे।
पाषाण हृदय के मानव ही
माँ को आभूषण हीन करे।
सोच रही है आज धरा भी
दिया दूध का जिसको प्याला।
करते हैं विद्रोह वही क्यों?
उम्मीदों ने जिनको पाला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।

कुंठित मन में मैल भरा है
जग अंगारों के मुख बैठा।
मानव मानवता का बैरी
रहता है हरदम ही ऐंठा।
ऊपर से उजियारा दिखता
भीतर मन का है अति काला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Friday, July 10, 2020

खेल नियति के

अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
पीर लखन से कह न पाए
विरह हृदय को भेद रहा था।

राम राम हा राम पुकारे
 नयन सिया के नीर झरे थे 
रावण युद्ध किया अति भारी
पंख विलग हो भूमि गिरे थे।
गिरा जटायू घायल होकर
राम सिया जय बोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

बैठ वाटिका में वैदेही 
राम दरस को तड़प रही थी।
विरह वेदना व्याकुल करती
नियति से प्रश्न पूछ रही थी।
गिन गिन बीते दिन औ रातें
मन का पंछी डोल रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।

नीर भरे नयनों को लेकर
पंथ निहारे उर्मिल रानी।
दीप दरस के रोज जलाती
बहे आँख से झर-झर पानी।
वीर भरत कुटिया में बैठा
राम खड़ाऊ पूज रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।

राम सिया के जीवन में भी
प्रश्न अनेकों रोज खड़े थे।
मानव मन दुविधा में उलझे
प्रभु पे कैसे कष्ट पड़े थे।
खेल नियति के प्रभु भी झेले
 सुख-दुख जीवन संग रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

चक्रव्यूह का भेद गहरा

धूप भी चुभने लगी है
साँझ भी चुपचाप जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

समय चक्र कैसा चला है
चाँद सितारे भी चुप है।
चाँदनी झाँकें गली में
अँधेरा घनघोर घुप्प है।
व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

मौत ताडंव आज देख
आस भी धूमिल हुई है।
होती आज मौन गलियाँ
कैसी ये चुभी सुई है।
मरी हुई मानवता के 
नींद तज अहसास जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

चक्रव्यूह-सा भेद गहरा
बीच जीवन डोलता है।
राह से कंटक मिटे सब
भाव मनके बोलता है।
मुस्कुराएँ लोग फिर से
तोड़ ये कमजोर धागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

भोर सुहानी (बालगीत)


उजियारा पूरब से आए
भँवरा गुनगुन गाता है।
सोने के रथ बैठ सवारी
सूरज हँसता आता है।

शीतल ठंडी भोर सुहानी
चहक-चहक चिड़ियाँ चहकीं।
पुरवाई के झोंके लेकर
कुंज-कुंज कलियाँ महकीं।
ताल तलैया पनघट गूँजे
मुर्गा बाँग लगाता है।
उजियारा पूरब ......

ओस चमकती मोती जैसी
धरती पे किरणें बिखरीं।
चमक सुनहरी जग में फैली
हरियाली चूनर निखरी।
अब तो जागो आलस छोड़ो
दिन भी निकला जाता है।
उजियारा पूरब से ....

बस्ता लेकर शाला जाते
नन्हें बाल सलोने जब।
आँगन में दादी भी आकर
माखन लगी बिलोने तब।
बारिश में सब दफ्तर जाते
लेकर अपना छाता हैं।
उजियारा पूरब से.....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 6, 2020

प्रलय का आरंभ

क्षण भर में ही काट दिया 
वृक्ष खड़ा था एक हरा
सीमेंटी ढांचा गढ़ने के लिए
ये कैसा क्रूर प्रहार किया

क्यों अनदेखी कर रहा मानव
प्रलय के आरंभ को
हरित धरा को वंश मिटाकर
जीवन में घोल रहा विष को

क्रोध मचाती प्रकृति से
क्यों मूँद रखी अपनी आँखें
जिन पेड़ों की छाया में खेले
काट रहे वो ही शाखें

हर तरफ मची त्राहि-त्राहि
हर तरफ से विपदा ने घेरा
मंदमति इस मानव का
दिखता है रोज नया चेहरा

स्वार्थ हुआ जीवन पे हावी
चला रहा वृक्षों पर आरी
पर्यावरण की क्षति देखकर
मानवता व्याकुल हो हारी

सुलग उठी है आज धरा भी
प्रचंड सूर्य की ज्वाला में
छायादार वृक्षों को मिटा रहा
इंसान दौलत की हाला में

नशा चढ़ा ऐसा शौहरत का
स्वार्थ बन गई बीमारी 
इंसानी करतूतों से उपजी
अभिशाप बन गई महामारी

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, July 5, 2020

आह धरा की

कटते तरुवर बढ़ती गर्मी
धरती हो रही बीमार।
क्रोधाग्नि से भरी प्रकृति
कैसे सहे अत्याचार।

हरियाली को आज मिटाकर
फल रहा कंक्रीट जंगल।
बंजर होती आज धरा फिर
करती सभी का अमंगल।
अपनी करनी से ही मानव
जीवन पे करता प्रहार 
कटते तरुवर ....


मौसम भी अब रूठा-रूठा
कहीं भूकंप कहीं बाढ़।
करनी का फल दुनिया भुगते
समस्या बनी खड़ी ताड।
आह धरा की आज लगी है,
मानव दिख रहा लाचार।
कटते तरुवर ....

आज प्रलय की आशंका ने
सबके मन को है घेरा।
 अपनी करनी कभी न बदले
हो चाहे घना अँधेरा।
मचा मौत का तांडव हर पल
हो रहा जीवन संहार।
कटते तरुवर....
***अनुराधा चौहान 'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, June 27, 2020

काली बदली

उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे
शीतल ठंडी पवन मचलती
घिरते हैं मेघ घनेरे।

नयन आस से देख रहे हैं
कब ये बदली बरसेगी।
कहीं हवा उड़ा न ले जाए
ये अखियाँ फिर तरसेगी।
बैरी पवन जरा हौले चल
उड़े संग नीरद तेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे

हाल बेहाल करती गर्मी
धूप देह को झुलसाती।
घनघोर घटाएं घिर घिर के
जनमानस को हर्षाती।
चपल दामिनी की थिरकन ने
डाले धरती पे डेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे

सुनो करे पुकार वसुंधरा
अब जोर-जोर घन बरसे।
हरियाली की ओढ़ चूनरी
धरती का भी मन हरषे।
मचल रहीं नदिया की लहरें
करने सागर के फेरे।
उमड़-घुमड़ के काली बदरी
नीले अम्बर को घेरे
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Tuesday, June 16, 2020

मौन बोलता है

अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।
नीर नयन गालों पे ढुलके
गहरे राज खोलता है।

सन्नाटे की चादर ओढ़े
रात अँधेरा गहराता।
यादों के ताने-बाने ले
कुछ धीरे से कह जाता।
आँख मिचौली खेले चन्दा
बादल बीच डोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।

छोड़ गए साजन परदेशी
होंठों की मुस्कान गई।
विरह वेदना मुझको देकर ।
खुशियों की सौगात गई
उम्मीदों की बैठ तराजू 
मन को हृदय तोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।

कली खिली थी मन बगिया की
सूख गई वो फुलवारी।
पतझड़ में बिखरे पत्तो सी।
बिखर गई खुशियाँ सारी।
पाषाण शिला सी मैं बैठी 
भाव हृदय टटोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, June 14, 2020

बरखा की बूँदे

थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
चपल दामिनी चमक चमक कर
क्या जाने किसे निहारे।

भीगा आँचल आज धरा का
राग छेड़ती पुरवाई।
महकी महकी सुगंध माटी
संग समेटे ले आई।
टापुर टुपुर साज छेड़ रही
शीतल जल भरी फुहारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।

धानी चूनर अंग लपेटी
वसुंधरा श्रृंगार किए।
झुलस रही थी कबसे प्यासी
शीतल जल की आस लिए।
महक उठे वन उपवन जीवन
बदली से ओझल तारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।

निर्झर झर-झर झरे गिरी से
ताल तलैया मुस्काते।
हुआ सुहाना मौसम प्यारा
सावन-भादो मन भाते।
नदियाँ बहती उफन-उफन के
मचल रहे सागर खारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, June 10, 2020

मोबाइल नशा

लगी है बीमारी बड़ी आज भारी
नयी नस्ल देखो मोबाइल की मारी

माँ-बाप,बेटे सभी घर में बैठे
मोबाइल के मारे रहे ऐंठे-ऐंठे

न माता की चिंता,न आँखों की परवाह।
सेल्फी पे गिनते हैं लोगों की वाह-वाह

कोई आँखें मींचे कोई दाँत दिखाता।
कोई काम कह दो, हमें कुछ न आता।

बनाकर के चेहरे बड़े टेढ़े-मेढ़े
लाइक और कमेंट ही डूबे रहते

कभी सब्जी जलती,कभी दूध उबलता।
अंदर से आरोप का लावा उफनता।

बड़ा ही अनोखा ये जादुई मोबाइल
घर बैठे-बैठे ही दुनिया दिखाई

विज्ञान की बात हो या इतिहास के पन्ने।
पहुँच जाते घर से ही सब कोने-कोने।

मगर ये बीमारी पड़ी आज भारी
दिन में सब सोते जगे रात सारी

गुलामी को इसकी खुद ही ओढ़ते हैं
स्वतंत्र जीवन से खुद मुख मोड़ते हैं

बड़ा ही बुरा अब आया जमाना
मोबाइल है दोषी नहीं किसी ने माना

नहीं संग हँसते न ही बोलते हैं
मोबाइल के सुख में सभी डोलते हैं

लगी है बीमारी बड़ी आज भारी
नयी नस्ल देखो मोबाइल की मारी
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार