पाप बढ़ा धरती पे भारी
कलयुग पाँव पसारे।
नारी तन की करे प्रदर्शनी
बेटा बाप को मारे।
सच्चाई पड़ती महँगी
झूठ बढ़ाता शान।
इंसानियत सिसकती कोने
हँसते जग बेईमान।
धर्म कराहे लंगड़ा होकर
अधर्म सिंहासन बैठा।
द्वेष भावना मन में पाले
अपनों से रहता ऐंठा।
एक द्वेष की फिर चिंगारी
रिश्ते पल में सुलगते।
नारी के आँचल में पलकर
नारी तन ही कुचलते।
प्रीत दिखावे में लिपटी
जिव्हा भी मिसरी बोले।
पीछे पीठ पर घात करें
और जहर ज़िंदगी घोले।
मानव की कैसी ये लीला
विनाश पथ ही चलता।
जीवन संसाधन को मिटाने
मानव में दानव पलता।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार