भूख पेट की बढ़ती जाती
अंतड़ियाँ दुखड़ा रोती।
धनवानों की बैठ तिजोरी
हँस रहे हीरा मोती।
पेट कसे निर्धन चुप होकर
ढूँढ रहा सूखी रोटी।
भूख प्राण की बलि ले हँसती
कुक्कुर नोच रहा बोटी।
देख पीर सन्नाटे छुपकर
मानवता भी चुप सोती।
भूख पेट की....
साँझ ढले फिर खाली हाँडी
चूल्हे पर चढ़ी चिढ़ाती।
खाली बर्तन करछी घूमे
बच्चों का मन बहलाती।
नन्ही आँखें प्रश्न पूछती
आशा फिर झूठी होती।
भूख पेट की....
शीत खड़ी दरवाजे पर जब
सन्न सन्न सोटे मारे
नन्हे थर-थर काँप उठे फिर
रातों में बदन उघारे।
स्वप्न रजाई हर बार सुना
तन ढाँक रही माँ धोती।
भूख पेट की....
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार