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Monday, December 30, 2019

शीतलहर (दोहे)

शीतलहर को झेलते, बैठे सिगड़ी ताप।
ठंडी से दुविधा बड़ी,राग रहे आलाप।

सूरज रूठा सा लगे,बैठा बादल ओट।
शीतलहर के कोप से, पहने सबने कोट।

चुभती है ठंडी हवा,शीतल चुभती भोर।
बैठी गुदड़ी ओढ़ के,माई सूरज ओर।

ठंडी भीनी धूप में, बैठे मिलकर संग।
मफलर कानों पे चढ़ा ,डाटे जर्सी अंग।

कुहरा झाँके द्वार से,हवा उड़ाती होश।
मोटे ताजे लोग भी, बैठे खोकर जोश।

छत के ऊपर बैठ के,सेंक रहे हैं धूप।
टोपा मोजा को पहन,अजब बनाए रूप।

गाजर का हलवा बना,सर्दी की शुरुआत।
चाय पकौड़े हाथ में, करते हैं सब बात।

भट्टी में आलू भुने,हाथ लिए है नोन।
बैठे अलाव तापते,दादा जी हैं मौन।

घनी पूस की रात में,नन्हा काँपे जोर।
टपके कच्ची झोपड़ी,घन बरसे घनघोर।

सिर पे अम्बर है खुला,थर-थर काँपे हाथ।
कथरी गुदड़ी ओढ़ के,सोता है फुटपाथ।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

दिन जीवन के

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

रुकता नहीं समय का पहिया,
संग संग चलना इसके।
बैठ गए किसी के रोके,
फिर पीछे रह जाना है।
मूक जानवर भी यह जाने,
साँझ ढले घर आना है।
ग्वाल बाल भी गायों को ले,
लौट घरों को आते हैं।

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

खुद पर हो सदा विश्वास,
जीवन में आराम कहाँ।
भाग्य से मिलता यह जीवन,
इंसा खुद लाचार बना।
कट जाता हैं धीरे-धीरे,
कठिन भरा यह जीवन भी।
दुख-सुख धूप छाँव के जैसै,
हर पल आते-जाते हैं।

आते-जाते दिन जीवन के,
संदेशे दे जाते हैं।
कल के ऊपर तुम मत बैठो,
सीख यही दे जाते हैं।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, December 28, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--4

(19)
*बहना*
बहना अपने भ्रात से,माँगे ऐसा दान।
नारी के सम्मान का,रखना होगा मान।
रखना होगा मान,सदा देवी सम पूजा।
उसकी हो पहचान,नहीं कुछ माँगू  दूजा।
कहती अनु सुन भ्रात,यही है मेरा कहना।
नारी की रख लाज,यही बस माँगे बहना ‌।
(20)
सखियाँ सुमन सुगंध सी,सुंदर सरल स्वभाव।
कोमल काया की कली,करुणा के ले भाव। 
करुणा के ले भाव,सखी की समझे पीड़ा।
करती दूर विषाद,उठाती सुख का बीड़ा।
कहती अनु यह देख, खुशी से भीगी अखियाँ।
देती दुख में साथ,भली होती हैं सखियाँ।
(21)
*कुनबा*
जोड़ा कुनबा प्रीत से,खिलते देखे फूल।
देखी अकूट संपदा,सब कुछ बैठे भूल।
सब कुछ बैठे भूल,भूले  पिता अरु माता।
छोड़ा सबका साथ,रखा बस छल से नाता।
कहती अनु यह देख,बैर को जिसने तोड़ा।
अपनों को रख साथ,खुशी से नाता जोड़ा।
(22)
*पीहर*
प्यारा पीहर छोड़ के,गोरी चली विदेश।
आँखों में सपने सजे,मन में भारी क्लेश
मन में भारी क्लेश,चली वो डरती डरती।
पीहर छूटा आज,मना वो कैसे करती
कहती अनु यह देख,सभी को लगता न्यारा।
भूलें कैसे प्यार,पिता का घर है प्यारा।
(23)
*सैनिक*
सैनिक तपता धूप में,झेले बारिश मार।
बर्फीली चोटी खड़ा,माने कभी न हार।
माने कभी न हार,तभी हम सुख से रहते।
भारत का यह मान,नहीं संकट से डरते।
कहती अनु यह देख, यही दिनचर्या दैनिक।
सहते दिल पे वार,डटे रहते हैं सैनिक।
(24)
*पनघट*
पनघट से राधा चली, कान्हा पकड़े हाथ।
 माखन मटकी फोड़ते,ग्वाले देते साथ,
ग्वाले देते साथ, करे सब सीनाजोरी।
माखन लिपटा हाथ, यशोदा पकड़ी चोरी।
कहती अनु यह देख, लगाकर बैठा जमघट।
नटखट है चितचोर, बजाता मुरली पनघट।
***अनुराधा चौहान***

Friday, December 27, 2019

चला दिसम्बर

स्वागत करने नववर्ष का
सजग हो सभी उठी दिशाएं
कुछ खट्टी-मीठी यादे देकर
चला दिसम्बर दे सर्द हवाएं
नेतृत्व करने मानव मन का
दो हजार बीस सजग हो रहा
वक़्त उड़ा पँछी के जैसा
कोहरे की चादर में लिपटा
कदम बढ़ाता सूरज होले
जैसे धरती से कुछ बोले
कुछ लम्हे फाँसों से चुभते
मन के जाते घाव दुखाते
उम्मीद मन में नयी जगी
साल नयी हो खुशियों भरी
गुनगुनी धूप ठिठुरी रातें
दिसम्बर देके चला सौगातें
वर्ष एक जीवन से छीन
जाते-जाते कहता जाए
उम्र के पँछी के उड़ने से पहले
जीवन से सुंदर लम्हे चुन
नवीन वर्ष खड़ा फैलाएं बाहें
बीस वर्ष के युवा जैसा
आँखों में नए स्वप्न जगाए
झर न जाए जीवन के मोती
जगा आशा की दीप ज्योति
मन में कोई क्लेश नहीं हो
कपट भरा परिवेश नहीं हो
जीवन में हो सुख भरी बातें
मिटे कलह सुखद हो रातें
सुख भरी हो सबकी दुनिया
नववर्ष ले आए खुशियाँ
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, December 25, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--3

(13)
उपवन
उजड़ा उपवन देख के,मानव हुआ निराश।
अपने हाथों से किया,उसने आज विनाश।
उसने आज विनाश‌,यही वह समझ न पाया।
करता बंटाधार,मिटा तरुवर की छाया।
कहती अनु यह देख,धरा पर मौसम बिगड़ा।
सोचे अब क्यों आज,हरित जो उपवन उजड़ा।

(14)
जीवन
दुविधा जीवन में छुपी,छीन रही आराम।
कैसे चिंता से बचें,करते हैं सब काम।
करते हैैं सब काम,कभी आराम न पाते।
भूले दिन औ रात,रहे मन को भटकाते।
कहती अनु सुन बात,सभी को मिलती सुविधा।
खुशियाँ मिले अपार,फिर नहीं रहती दुविधा।

(15)
कविता
कविता कहती सुन कलम,कैसा कलियुग आज।
कोयल से कागा भला,कहती कड़वे राज।
कहती कड़वे राज,कर्म सब कलुषित करते।
कलियुग रचे विधान,तभी दुख से सब डरते।
कहती अनु यह देख,क्लेश की बहती सरिता।
कलियुग छीने प्रेम,यही कहती है कविता।

(16)
ममता
सोया आँचल के तले,मिलती ममता छाँव।
पैरों के बल क्या चले,भूले अपना गाँव।
भूले अपना गाँव,कभी थे आँचल झूले।
शहरी आभा देख,बची ममता की भूले।
कहती अनु सुन बात,बचाले सुख जो खोया।
ममता देती छाँव,जगाले मन जो सोया।

(17)
बाबुल
बेटी को करके विदा,बाबुल रोए आज।
आँखों से आँसू बहें, कैसे रीति-रिवाज।
कैसे रीति-रिवाज,हुआ सूना घर अँगना।
बेटी साजन साथ,पहन के चलदी कँगना।
कहती अनु दुख देख,दुखी हो दादी लेटी।
बाबा पोंछे नैन,चली जो घर से बेटी।

(18)
भैया
भैया की है लाडली,बाबुल की है जान।
बेटी रखती है सदा, दो-दो कुल की मान।
दो-दो कुल की मान,सदा सम्मान बढ़ाया।
ऊँचा करके नाम,जहाँ में नाम कमाया।
कहती अनु यह देख, झूमते बाबुल मैया।
बेटी है अनमोल, खुशी से कहते भैया।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, December 21, 2019

अनु की कुण्डलियाँ--2

(7)
*बिंदी*
पायल बिंदी है सजी,चली नवेली नार।
आँखों में सपने सजा,ढूँढें राजकुमार।
ढूँढें राजकुमार, मिला न राम के जैसा।
जो भी पकड़े साथ,लगे वो रावण ऐसा।
कहती अनु सुन बात,नहीं कर मन तू घायल।
अपनों के चल साथ,तभी बजती है पायल।
(8)
*डोली*
डोली बैठी नववधू,चली आज ससुराल।
आँखों में कजरा सजा,बेंदा चमके भाल।
बेंदा चमके भाल,कमर में गुच्छा पेटी।
सर पे चूनर लाल,सजी दुलहन सी बेटी।
कहती अनु यह देख,कभी थी चंचल भोली।
चलदी साजन द्वार,सँवरकर बैठी डोली।
(9)
*आँचल*
छोटी सी गुड़िया चली,आँगन वाड़ी आज,
आँचल में माँ के छुपी,करती थी वो राज।
करती थी वो राज,लली छोटी सी गुड़िया।
पढ़ने जाती आज,कभी थी नटखट पुड़िया।
कहती अनु सुन आज,नहीं है बेटी खोटी।
देगी दुख में साथ,अभी है कितनी छोटी।
(10)
*कजरा*
कजरा डाले गूजरी,देखो सजती आज।
आँखों में उसके छुपा,कोई गहरा राज।
कोई गहरा राज,बता दे तू सुकुमारी।
खोले परदे आज,नहीं कोमल बेचारी।
कहती अनु सुन बात,सजा बालों में गजरा।
करती दिल पे राज,लगा आँखों में कजरा।
(11)
*चूड़ी*
चटकी चूड़ी देख के,झुमका भूला साज।
माथे की बेंदी मिटी,बिछुआ रोया आज।
बिछुआ रोया आज,नहीं अब सजन मिलेंगे।
भूली पायल गीत,किसे अब मीत कहेंगे।
कहती अनु यह देख,अधर में साँसे अटकी।
साजन हुए शहीद,विरह में चूड़ी चटकी।
(12)
*झुमका*
झुमका झूमें कान में,बेंदा चमके भाल।
पायल छनके पैर में,कहती दिल का हाल।
कहती दिल का हाल,चलो बागों में झूले।
सावन बरसे आज,सखी कजरी भी भूले।
कहती अनु यह देख,लगाए गोरी ठुमका।
इतराती है नार,सजा कानों में झुमका।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 17, 2019

अनु की कुण्डलियाँ-1

(1)
वेणी
महकी वेणी मोगरा,जूड़े सजती आज।
शरमाती गोरी चली,पायल देती साज।
पायल देती साज,पहन के कँगना हाथों।
भाँवर पड़ती आज,रही ले फेरे सातों।
कहती अनु सुन आज,खुशी से दुल्हन चहकी  ।
लाली मुख पे  लाल,लटों में वेणी महकी।
(2) 
कुमकुम
गोरी बैठी पालकी,चली पिया के देस।
आँखों में कजरा लगा,पहने चूनर वेस।
पहने चूनर वेस,माँग का चमका टीका,
गजरा महका बाल,लगाए कुमकुम टीका।
छोटी थी कल देख,लली थी सुनती लोरी
चलदी वो ससुराल,विदा होकर के गोरी।
(3)
काजल
चूड़ी से बिँदिया कहे,तू क्यों देती साज।
तेरी खन खन में बसे, नारी मन का राज।
नारी मन का राज।लगाती काजल बिँदिया। 
सजती जब ये नार,चुराती हैं यह निँदिया।
कहती अनु सुन आज,बनाओ हलवा पूड़ी।
साजन आए द्वार, खनक-खनकें है चूड़ी।
(4)
गजरा
महके बालों में लगे,गजरा जूही आज।
झुमके कानों में सजे,कँगना चूड़ी साज।
कँगना चूड़ी साज,पहनती चूनर सारी।
कर सोलह श्रृंगार,लग रही सुंदर नारी।
कहती अनु यह देख,खुशी से सखियाँ चहके।
लटका लट में आज,जुही का गजरा महके।
(5)
पायल
छनकी पायल पाँव में,देखे छुपके मीत।
शरमाती दुलहन चली,सजना गाए गीत।
सजना गाए गीत,देख दुलहन भरमाती।
होंठों पे मुसकान, झुका नयना शरमाती।
कहती अनु यह देख,सखी की चूड़ी खनकी।
चलदी साजन साथ,छनक छन पायल छनकी।
(6)
कंगन
 झुमका कंगन साथ में ,छेड़े ऐसा राग।
आँगन में गोरी नचे,खेले साजन फाग।
खेले साजन फाग,चली देखो बलखाती।
रंगों की बरसात,सजन से नेह दिखाती।
कहती अनु यह देख,लगा खुशियों का ठुमका।
नाचे गोरी आज,पहन के कंगन झुमका।

***अनुराधा चौहान***

Monday, December 16, 2019

टूटे पँखों को लेकर

टूटे पँखो को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूट के बिखरे सपने जो,
इस दिल पे आघात लगा।
 बनके साथी छोड़े साथ,
वो साथी बेकार लगा।
रोकर जीवन अब न गुजरे,
दुख को परे झटकना हो,
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखों को लेकर के,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

काँटे हैं चुभने के लिए,
कदम रोक मत लेना तुम।
अँधियारे भरे जीवन में,
दीपक आस जलाना तुम
मिल जाए सच्चा साथी,
सुख से दामन भरना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखो को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

सन्नाटे में मन का शोर ,
सोए दर्द जगाता है।
रातों में छुप-छुपकर चँदा,
सच्चाई कह जाता है।
उम्मीद की किरण बहुत है ,
चाहे प्रकाश झीना हो।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।

टूटे पँखों को ले करके,
कैसे जीवन जीना हो।।
घुट-घुटकर ही मरना नहीं,
हँसकर जीवन जीना हो।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, December 12, 2019

अलाव

अलाव की गर्मी से
राहत पाने की आशा में
ठिठुरता बचपन
पिता की आगोश में छुपा
धरती के बिछौने पर
खुले अम्बर के नीचे
एक ही चादर में लिपटा
शीतलहर से बचने का
अथक प्रयास करता
मौसम पे भला किसी का
क्या चला है जोर
भोर की धूप संग ठिठुरते
घर-आँगन चौबारे में 
अलाव के सामने
हाथों को सेंकते 
लोगों की टोली बैठ जाती
सुबह की चाय की चुस्की के साथ
गपशप करते
 बातों से सर्दी के अहसास
बांटने में लगे रहते
बढ़ती ठंड का बखान कर 
मौसम का हाल
बताने के साथ 
शुरू हो जाते अपनी दिनचर्या में
गुजरते दिन की तरह
गुजर रहे वर्ष के सफ़र का
लेकर खट्टा-मीठा चिट्ठा
एक और साल
फिर बीत चला है
दिसम्बर विदाई को
सजने लगा है 
नया साल ले आ रहा
घने कुहासे की सौगात
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, December 6, 2019

कानन(दोहे)

जंगल अब कंक्रीट के,लील रहे हैं गाँव ।
बूढ़े बरगद कट रहे,कहाँ मिले अब  छाँव ।।

गंध वाटिका खो रही,जल संकट से आज।
बिन जल मानव का नहीं,होगा कोई काज।।

कुसुमित कानन बीच में,मधुर प्रिया मुस्कान ।
कर जाती थी मौन ही,प्रियतम का प्रिय गान।।

कानन में क्रीड़ा करें,बेटी-चिड़िया संग।
वे भी मर्माहत हुए,हुआ मनुज बेढंग।।

कानन हरियाली घटी,सूखे सरिता ताल।
पर्यावरण विषाक्त है,नाच रहा सिर  काल।।

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 3, 2019

छली-सी खड़ी

 
छली-सी खड़ी थी
अपनों से ठगी थी
जुएँ की लालसा की
बली चढ़ी थी।
बचाने द्रोपदी को
कैसे तुम दौड़ पड़े
रिश्ते बचाने 
हर मोड़ पे खड़े थे
द्रोपदी से भाई का
हर फर्ज निभाया
भरे दरबार में
उसका चीर बढ़ाया।
कहते हैं सब 
तुम दयालु बड़े हो
मगर हे कृष्णा
कहाँ छुपे खड़े हो
नहीं है सुरक्षित
बेटियाँ अब जमी पे
बचा नहीं सको तो
उठा लो धरती से
नहीं है ज़रूरत
अब बहन बेटियों की
न माँ चाहिए
न ममता अब माँ की
चाहिए तो अब सिर्फ
घृणित इरादों की पूर्ति
नहीं दर्द न ममता
अब कोमल कली से
निकलना मुश्किल
मासूमों का गली से
दिखता है केवल अब
तन स्त्रियों का
सरे राह हो रहा
चीर हरण बेटियों का
जिंदा जला
फूँक देते हैं उनको
नहीं कोई इंसान
जो बचाए निर्बल को
है लकड़ी के तिनके
नहीं कोई रक्षक
बने सब धरा पे
नारी तन के यह भक्षक
हरपल यह लुटती
कहीं किसी गली में
अपनों के ही बीच
जा रही छली ये
हे माधव
हे गोविन्द हे त्रिपुरारी
बचा न सको
तो मिटा दो तुम नारी
न रहेगी जननी
न बढ़ेगी सृष्टि
बिगड़ेंगे हालात
बंजर धरा के
अँधेरा बढ़ेगा
रोशनी को मिटा के
***अनुराधा चौहान*** स्वरचित ✍️