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Sunday, January 31, 2021

परम सत्य है मृत्यु

ज़िंदगी कब  किसे
किस घड़ी धोखा दे जाए
इंसान को पता नहीं चलता
कब रिश्तों की माला से
कोई मनका टूटकर बिखर जाए
मानव बेबस होकर
बस खड़ा देखता रह जाए
ज़िद को जीतने का जुनून
खुशियों को बांटने का हुनर
रिश्तों को सहेजने तक
सब कुछ मानव के बस में है
अगर कुछ बस में नहीं है
तो परम सत्य मृत्यु को रोक पाना
चाँद तारे सूरज धरती अम्बर पानी
सब थे हैं और रहेंगे
जीवन के आने-जाने का क्रम भी
यूँ हीं चलता रहा है और रहेगा
अपनों से मिलने से लेकर
उनसे बिछड़ने की पीड़ा
हर किसी को जीवन में
सहनी पड़ती है और
यही इस जीवन का परम सत्य है
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार

Sunday, January 24, 2021

मन वीणा के तार


 साज कभी जो साथ रचे थे
तार सभी टूटे दिल के।
आहत मन की सुर सरिता से
कोई गीत नहीं किलके।

भूल गए की जो प्रतिज्ञा
जिए संगिनी संग प्रिये।
समय बदलते बदल गए
बने आज पाषाण हिए।
कभी रागिनी बनकर बहती
आज भरी पीड़ा छलके।
साज कभी.....

आघात हृदय पर सहकर भी
इस जग को दिखलाऊँगी।
गहन अँधकार के बादल में
 धूप ढूँढ ही लाऊँगी।
अबला नारी नहीं आज की
मूँद रखूँ अपनी पलकें।
साज कभी.....

दूर हटाई दुख की बदली
आशा का संचार हुआ
कंटक पथ पर फूल खिले फिर
सपनों ने आकाश छुआ।
मन वीणा के तार छेड़ते
मध्यम सुर हल्के हल्के।
साज कभी.....
©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

Friday, January 22, 2021

शोषण


मत होने दो

शोषण किसी का

मत होने दो भ्रष्टाचार

मानवता की बलि चढ़ाते

यह मानवीय अत्याचार

जगह जगह पे हिंसा होती

निर्बल मरता भूखा

धनवानों पर धन की बारिश 

निर्धन के घर सूखा

जगह-जगह पर

झगड़े लफड़े 

जगह-जगह उत्पाद मचा

मानव ने मानव के लिए

यह कैसा भ्रमजाल रचा

भूख मिटे जन-जन के उदर की

यह सोच कृषक अन्न बोते

सर्दी गर्मी बारिश में भी

जीवन के सुख खोते

आज उन्हीं की बदहाली को

देख ईश्वर रोता

मतलब की सब रोटी सेंके 

कोई साथ न देता

शोर-शराबे भाग-दौड़ में

जीवन बीता जाए

मानवता मानव के भय से

छुपती मुँह छुपाए

©® अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित 
चित्र गूगल से साभार

 


Wednesday, January 20, 2021

बसंती रंग


 खिले सरसों खिले टेसू
बहारें मुस्कुराएंगी।
संदेश सुख भरे लेकर
हवाएं खिलखिलाएंगी।

हँसे जगती खिले सबके
बसंती रंग जीवन में।
कुहासे की हटा चादर
बसंत उतरे आँगन में।
खिले हँसके कली कोमल।
लताएं गीत गाएंगी।
खिले सरसों खिले टेसू....

सुनो ऋतुराज जब आए
रंग फागुन संग लाए।
मिटाने रात अब श्यामल
आशा दीप जगमगाए।
नए पल्लव नयी कलियाँ
डाल संग लहराएंगी।
खिले सरसों खिले टेसू....

खिलेंगे मन सभी के फिर 
मिटेगी काल की छाया।
मनाएंगे गले मिलकर
रंग त्योहार फिर आया।
जिए जीवन सभी सुख से
खुशी भी गुनगुनाएंगी।
खिले सरसों खिले टेसू....
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

Monday, January 18, 2021

माँ की महिमा


 मोल नहीं माँ की ममता का
दिल की होती बहुत धनी।
दुख की धूप न आने देती।
बनकर ममता छाँव घनी।

माता के आँचल में छुपकर
करते हरदम शैतानी।
ज्यों निकले माता से ऊँचें
कर बैठे सब मनमानी।
परे झटक फिर हृदय दुखाते
बात बात पे रार ठनी।
मोल नहीं माँ....

चढ़ी सफेदी बालों में फिर
भले काँपते पैर चले।
माँ की गोदी में सिर रखकर
जीवन की हर खुशी मिले।
भूल न जाना माँ की महिमा
कभी न रखना भवें तनी।
मोल नहीं माँ.....

फिरे ढूँढते स्वर्ग जगत में
सारी दुनिया घूम गए।
स्वर्ग बसा माँ की गोदी में
उसको ही सब भूल गए।
सदा लुटाती माँ बच्चों पे
आशीषों की धूप छनी।
मोल नहीं माँ....
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार

Friday, January 15, 2021

कुछ भी नहीं तेरा


 अपने गौरव की
कहानी कहते यह खंडहर
इंसान को ज़िंदगी की
असलियत दिखलाते
कुछ भी नहीं तेरा
जो इतना इतराता है
इंसान तो माटी का पुतला
एक दिन माटी में मिल जाता है
इन खंडहरों में भी कभी
गूँजा करती थी हँसी 
आज भी इन दीवारों में
कई यादें पुरानी हैं बसी
आँगन में झूले 
चूल्हे पर बर्तन 
खुशियों ने किया होगा
कभी यहाँ नर्तन
नन्हे कदमों की आहट
कभी चुड़ियों की खन खन
पकवान बनाती गृहणी की
पायल की छम छम
आज भी कहती
अपने अस्तित्व की कहानी
समय बदलते बदल जाती
इक पल में जिंदगानी
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार

Thursday, January 14, 2021

मौका मिले न बार बार

काल सा रूप लेकर
जीव को डसती रही
बोझ लेकर लाशों का
साल बीस ढल गई
काँपता था देख मानव
काल के इस रूप से
मौत का ये हार लेकर
मिले किस स्वरूप में
आस फिर मन में जगी
साल नयी खुशियों भरी
कालिमा जग से मिटाकर
धूप खिलेगी आशा भरी
मानव संभलकर चल
विनाश का ना भार ले
खिलती हुई प्रकृति सदा
खुशियों का आशीष दें
क्रोध सृष्टि का बढ़ाकर
अंज़ाम देखा संसार ने
रंक से राजा बने तो
कई मिल गए खाक में
नियति की नीति का
राज ना समझा कोई
मूढ़ मनुज सोचता है
ज्ञानी न उस जैसा कोई
दंभ सारे टूट बिखरे
एक ही लाठी चली
सत्य जीवन मृत्यु का
देखकर काठी कँपी
भूल को सुधारने का
मौका मिले न बार बार
हरी भरी प्रकृति खिले
देती जीवन उपहार
प्राणवायु जहर मिली अब
कोई ना जग में सहे
गंदगी को दूर करें तभी
स्वच्छ निर्मल सरिता बहे
दूर होंगे रोग सारे
सुखमय संसार होगा
सत्य की फहरे पताका
भावनाओं में प्यार होगा।
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार


Wednesday, January 13, 2021

चीखकर कहती कलम


 रीतियों के जाल जकड़ा

 कब तक रहेगा जमाना।

लाज का पल्लू पकड़ के

दर्द नारी न पहचाना।

छीन हाथों से किताबें

आज भी करते विदाई।

पीर बेटी जब सुनाती

रीति की देते दुहाई ।

चीखकर कहती कलम यह

पीर कब समझे जमाना।

रीतियों के जाल......


एकजुट होकर चलें अब

आँख पट्टी खोलनी है।

बंद हो शोषण सभी अब

बात सबको बोलनी है।

बोझ बनी कुरीतियों को

आज है जड़ से मिटाना।

रीतियों के जाल.....


अधिकार से वंचित कभी

कोई न अब बेटी रहे।

मान उसको भी मिले फिर

हर्ष की यह गाथा कहे।

संचालिका यह सृजन की

सीख ये सबको सिखाना।

रीतियों के जाल......

©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

चित्र गूगल से साभार



Monday, January 11, 2021

झूठ का अस्तित्व


 राह के रोड़े बने जो
आज उनको तोड़ना है ‌।
जो बुझाए दीप सारे 
आँधियाँ वो मोड़ना है।

कौरवों के छल कपट की
पीर द्रोपदी क्यों सहती।
ठान बैठी जिद प्रलय की
क्रोध बनके आग बहती।
हाथ तन छूने बढ़े जो
खींच आज मरोड़ना है।
राह की अड़चन....

बैर बनके रोग पनपे
आग ऐसी मन लगी है।
भावनाएं मर चुकी अब
वासना तन मन जगी है।
काँपता अब सत्य पूछे 
बोल कितना दौड़ना है।
राह की अड़चन....

व्याधियाँ सिर पे खड़ी तब
झूठ का अस्तित्व आँका।
सत्य के रण में उतर फिर
धर्म की फहरी पताका।
प्रेम अब अंतस जगा के
बैर पीछे छोड़ना हैं।
राह की अड़चन....
©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

चित्र गूगल से साभार