जीतने की होड़ ऐसी
मिट रही जग से भलाई।
बेवजह की अटकलों से
आपसी बढ़ती लड़ाई।
स्वार्थ के रंग रंगकर
अपनों से करली दूरी।
भेदी मन के मीत बने
कैसी जग की मजबूरी।
खुशियाँ अपने जीवन की
हाथों से आग लगाई।
जीतने की होड़ ऐसी....
देख दिखावे के पीछे
रास नहीं गलियाँ आती।
जीवन बीता जिस घर में
खाट नहीं वो मन भाती।
धन वैभव सिर चढ़ बोला
भूल गए अपने भाई
जीतने की होड़ ऐसी...
तिनका तिनका घर बिखरे
चैन सभी मन का खोते।
असली खुशियाँ दूर हुई
बैठ करम को फिर रोते।
अश्रु की नदिया बहे फिर
याद की चली पुरवाई।
जीतने की होड़ ऐसी...
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार