बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
नाम गूँजता जग में उसका
कारज जग हित करता।
गले लगाना है अपनों को
उचित नहीं ये दंगा।
पापों को हरती रहती है
शीतल जल से गंगा।
वीरों की ये पावन धरती
थर-थर है शत्रु डरता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
श्वेत बहे माथे से जिसके
धन की कीमत जानी।
चोरी-चुपके छीना-झपटी
आलस की मनमानी।
महल सदा अमीरों के लिए
श्रमिक ही गढ़ा करता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
पुष्प मंड़राती मधु मक्खी
बूँद-बूँद रस को पीती।
शहद मधुर बनाने के लिए
नित मरती औ जीती।
शौर्य बड़े साहस के कारज
बीज एक लघु करता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार