बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
नाम गूँजता जग में उसका
कारज जग हित करता।
गले लगाना है अपनों को
उचित नहीं ये दंगा।
पापों को हरती रहती है
शीतल जल से गंगा।
वीरों की ये पावन धरती
थर-थर है शत्रु डरता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
श्वेत बहे माथे से जिसके
धन की कीमत जानी।
चोरी-चुपके छीना-झपटी
आलस की मनमानी।
महल सदा अमीरों के लिए
श्रमिक ही गढ़ा करता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
पुष्प मंड़राती मधु मक्खी
बूँद-बूँद रस को पीती।
शहद मधुर बनाने के लिए
नित मरती औ जीती।
शौर्य बड़े साहस के कारज
बीज एक लघु करता।
बूँद-बूँद जब जल की गिरती
घड़ा एक नित भरता।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
बूँद-बूँद जब जल की गिरती...बहुत सुंदर सार्थक संदेश देती रचना।
ReplyDeleteनवगीत में शब्दों का अवगुठंन बहुत सुंदर है अनुराधा जी।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteबहुत बहुत खूबसूरत गीत अनु जी👌👌👌👌💐💐
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है ... नव गीत ... नवीन शब्दों के साथ रचा ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रेरक संदेश से सजा नवगीत ।
ReplyDeleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार
(12-06-2020) को
"सँभल सँभल के’ बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं" (चर्चा अंक-3730) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार सखी
Deleteबहुत सुंदर रचना हे
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसुन्दर भाव लिये सुन्दर कविता
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
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