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Friday, May 31, 2019

नौतपा का प्रहार

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जेठ दुपहरी की तपन,नौतपा का प्रहार
विपदा यह सबसे बड़ी,करते हाहाकार
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तन जलावे धूप बड़ी,लू का तीखा वार
कैसे यह विपदा टले,प्रभू लगाओ पार
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जल संकट से हर तरफ, मच रहा कोहराम
करो सूर्य उपकार तो,मिल जावे आराम
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कुम्हलाय पेड़ पौधे,संकट बढ़ता अपार
वर्षा के दिख जाए अब,थोड़े से आसार
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***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, May 30, 2019

काश तुम होते

सोचती हूँ अक्सर तन्हाई में
काश वो लम्हा न जिया होता
जिस लम्हे में साथ छूटा था तेरा
काश वो रात न आई होती
तो मेरी ज़िंदगी से तेरी विदाई न होती
काश वो सफ़र न तय किया होता
जिसमें तुमसे दूर जाना लिखा था
यह "काश,अगर,यदि" ने साथ छोड़ा होता
तो शायद इस दर्द से बाहर निकल पाते
पर काश ऐसा हो सकता
तो इन दर्द भरी यादों को भूलना आसान होता
जेठ दुपहरी-सी तपती तेरी यादें
विरह की आग में मन को जलाती
काश तुम गए न होते तो
देखते कुछ नहीं बदला सब-कुछ वही है
अगर कुछ कमी है तो वो तेरी कमी है
काश मान जाते तुम सबका कहना
मगर तुम को जिद्द थी जाने की कैसी
एकबार भी न
सोचा जाने से पहले
उस लम्हे को रहेंगे सदा हम कोसते
काश रोक पाते तुमको पर मजबूर थे हम
किस्मत के फ़ैसले से नाखुश थे हम
काश टल जाती मौत आने से पहले
तो आज़ ज़िंदगी में तेरी कमी न खलती
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, May 28, 2019

प्रदूषण का दानव

प्रदूषण बना दानव
लील रहा है शुद्ध हवा
घोल रहा उसमें जहर
नदियों की निर्मल धारा छीन
धकेल रहा दलदल की ओर
प्रदूषण के भय से हो रहा
पर्यावरण असंतुलित 
ओजोन परत छलनी हो रही
बदले हैं मौसम ने मिज़ाज
प्रदूषण के दानव से अब
काँप उठी है धरा 
ग्लेशियर पिघलते हुए
अपना अस्तित्व खो रहे
कट रहे हैं जंगल
पक्षी बनते जा रहे इतिहास
प्रदूषण के दानव से
कब तक बचने का करोगे प्रयास
धकेल रहे हैं हम खुद
खुद इस महादानव की और
इसकी गिरफ्त में आकर
भूलें सब दुनियादारी
सुख-सुविधाओं के नाम पर
खुद बुलाई अपनी बरबादी
अब शायद ही कभी
आएगा शुद्ध हवाओं का दौर
और कभी पहले जैसी सुहानी भोर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, May 27, 2019

ज़िंदगी एक चक्रव्यूह

एक पहेली के जैसी लगती है
 ज़िंदगी भी कभी-कभी
जितना सुलझाना चाहो
उतना ही उलझती जाती है
कभी मखमली अहसास देती
उड़ने लगती है आसमान में
खूबसूरत रंग भरने लगती 
तो कभी धरातल पर लाकर
अपनी सच्चाई दिखाती है
थक जाती है ज़िंदगी भी
दायित्वों का निर्वाह करते
चाहती कुछ पल शांति के कहीं
पर कहाँ मिलता है आराम
मौत से पहले ज़िंदगी में
परिस्थितियों से मजबूर हो
जुटे रहते हैं सब काम में
कुछ ऐसे लोग भी हैं यहाँ
जिन्हें तलाश है काम की 
पर फ़िर भी कोई काम नहीं मिलता
ज़िंदगी इतनी सरल कहाँ है 
चक्रव्यूह-सा रचती रहती है
यह ज़िंदगी सबके इर्दगिर्द 
हम अभिमन्यु की तरह 
लगे रहते हैं भेदने मुश्किलों को
तब तक उमर बीत जाती है
ज़िंदगी चल देती है मौत की गली
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, May 25, 2019

जीवन की पारी


ज़िंदगी के खेल में
कभी हारते कभी जीतते
देखें जीवन के रंग अनेक
जन्म लेता है मानव
जीवन की पहली पारी में
असहाय सा पड़ा
कभी रोकर कभी हँसकर
अपने भावों को व्यक्त करता
खिलौने की तरह
कभी इस गोद कभी उस गोद
प्यार के साए में बढ़ता
थोड़ा बड़ा होते ही
दूसरी पारी शुरू होते ही
जुड़ने लगती माँ-बाप की इच्छाएँ
कंधों पर बस्ते का बोझ
बचपन कहीं गुम होने लगता
प्रथम आने की सबको आस रहती
तीसरी पारी में
मंज़िल की तलाशते
सपनों को पूरा करने
निकल पड़ते घर से दूर
तकलीफों को सहकर सफल होते
घर बसाकर जीवन की नई शुरुआत करते
चौथी पारी में
अपने सपने तो कहीं दफ़न हो जाते
बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने में
माता-पिता को खुश करने में
रिश्तों को टूटते हुए देख 
खुद को हारता महसूस करते
अंतिम पारी में
एक बार फिर असहाय से पड़े
कभी रोकर कभी हँसकर
अपने भावों को व्यक्त करते
कभी प्यार कभी तिरस्कार सहते
एक बोझ के जैसे 
जीवन को लगते हारने
ज़िंदगी के खेल निराले होते हैं
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, May 22, 2019

जीवन नैया

विचारों के गहरे सागर में
गोते खाती जीवन की नाव
अंतर्मन में उठते सवालों के
थपेड़ो से डूबती-उतराती

कभी खुशियों के किनारे लगती
कभी मन के झंझावातों में फस
वहीं गोल-गोल घूमती रहती 
आस नहीं छोड़ती तूफ़ानों से लड़ती

लालसा की लहरों के बीच
जिजीविषा डोलती रहती
संतोष का किनारा पकड़ने की
हरदम नाकाम कोशिश करती

पल-पल सुलगती रहती
अथक परिश्रम कर के भी 
जिजीविषा खुशी के पल ढूँढती
पूरा न होने पे हताशा झेलती

विचारों के सागर से मुक्ति कहां मिलती
एक के बाद एक लहरें टकरातीं
फिर फँसकर मौत के भंवर में
हताश हो जीवन नैया टूटकर बिखरती
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

रहस्यमयी गलीचे

सुनहरे अश्वो पर सवार हो
सिंदूरी गलीचे पर चलके
सूर्य आया रश्मियों के साथ
जीवन में उजाला भरने

बिखरी हुई रश्मियों ने
छुआ ज्यों ही कलियों को
उतार ओस का घूँघट
हँसी कलियाँ तितलियों को

भोर का सुखद अहसास लिए
चहक उठा जीवन भी
निकल पड़े सब घर से
ज़िंदगी जीने अपनी-अपनी

बिछाए सुनहरा गलीचा
देते दिनकर जीवन की धूप
शाम को समेटकर उजाला
क्षितिज के छोर पर गया छुप

बिछ गई अँधेरे की चादर
रात आई ख्व़ाबों को लेकर
चाँद मुस्कुराया आसमान में
तारों का गलीचा बिछाकर

चमचमाती हुई चाँदनी
अँधेरे से रातभर लड़ती
सुबह सवेरे थककर चूर
चाँद से लिपट सो जाती

सूर्य उदय की पुनः तैयारी
कर रथ पे सवार हो आता
इस दिन-रात के फेर में
ज़िंदगी चलती अपनी धुन में

समय का चक्र भी चलता रहता
रहस्यमयी गलीचों से गुजर
ज़िंदगी भी चलती रहती है
इन गलीचोें पर कुछ खोजती

***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, May 21, 2019

अरमानों का गलीचा

अरमानों का गलीचा बिछाए
आशा की किरण मन में जलाए
झांकती रहीं बूढ़ी आँखें
अकेली खड़ी खिड़की से
मन में ढेरों सपने सजाए
पैरों की आहट चूड़ी की खनक
शायद खत में आए कोई खबर
मायूस होकर बैठ जाती
पुराने सपनों में खो जाती
अभी कहीं से आवाज़ देगा
बेटा पुकारेगा माँ कहकर
दौड़कर आएगा लगाएगा गले 
सोचकर मुस्काई नम आँख लिए
पर धोखा खाकर अकेली पड़ी
आस अब कहां पूरी होगी
बुढ़ापे की जो लाठी थी
भीड़ में पहले ही कहीं खो गई
फिर भी उम्मीद लगाए बैठी
शायद कोई याद बचपन की
या माँ के आँचल की खुशबू
बेचैन कर दें लौट आने को
भूल जाऊँगी सारी बातें
अपने गोदी के लाल की
अरमानों का गलीचा बिछाए
बैठी रहूँगी मैं इसी आस में
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, May 17, 2019

अजनबी-सा व्यवहार

क्यों अजनबी-सी लगे
हवाएँ जो मुझे छूकर चले
बेगाना-सा एहसास लिए
कहीं कोई तारा टूटे

सागर की लहरें भी चुप-सी
किनारों से हैं कुछ रूठी-सी
अपने ही अंदर कुछ बुनता-सा
सागर भी है गुमसुम-सा

घिरा है घटाओं से घनघोर
बादल हैं गुमसुम न करे शोर
अपने अंदर सैलाब को रोके
क्यों खुद को बरसने से रोके

किसी की तड़प है यह
या अजनबी का है इंतजार
क्यों कर रही फिजाएं आज़
अजनबी-सा व्यवहार

कोई आह है टूटे दिल की 
जो बेचैन होती है कुदरत भी
कुमुदिनी भी खिलती नहीं
रात रही है गुजर

बस चाँद ही है पूनम का
किसी बात पर मुस्कुराता हुआ
चाँदनी को भेज ज़मीं पर
सबको जगाता हुआ-सा

शायद उसे मालूम है
इस बेचैनी का हर राज़
इसलिए चांँदनी ले आई पैगाम
किसी अजनबी के आने का आज
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, May 16, 2019

पिता की छाया

तपते मरूस्थल में तरुवर के जैसे
छाया देते पिता सदा ही ऐसे
जीवन की धूप से रखते बचाकर
आगे बढ़ाते सही मार्ग दिखाकर
दिखाते नहीं कभी प्रेम अपना
उनकी डांट में छुपा जीवन का सपना
कठोरता का कभी-कभी पहनकर आवरण
निखारते हैं सदा हमारा आचरण
सोच उनकी कभी ग़लत नहीं होती
हमारे लिए सदा सही मार्ग ही चुनती
एक खरोंच आ जाए तो तड़प उठते
प्रेम दिखाने में मगर बहुत संकोच करते
हृदय में भरा प्रेम का अथाह सागर
व्यक्त करने का पर तरीका अलग है
कहते हैं कम रहते हैं मौन
पिता से बड़ा भला हितैषी और कौन
पग-पग पर खड़े रहते हैं ढाल बनकर
पिता की यही खूबी सबसे है हटकर
माँ से मिलती संस्कारों की पूँजी 
पिता से मिले ज़िंदगी जीने का तरीका
जीवन में तकलीफों को खुद सह लेते
ज़िंदगी में हमारी खुशियाँ ही भरते
पिता के बिना घर, घर नहीं लगता
उनके वजूद से हर रिश्ता खिलता
रौशनी पिता से रौनकें पिता से
ज़िंदगी की धूप में छाया पिता से
खुद कष्ट सहते हमें सुख देते
मुश्किलों में साहस बनते पिता
मत भूल जाना कभी त्याग पिता का
हमारे भविष्य की नींव है पिता
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, May 15, 2019

मुखौटा धारी मानव

कुंडली मारकर बैठे हैं यह
इंसानियत के दामन पर
तिल-तिल मरती मानवता
मुखौटा धारी मानव से

कौन अपना और कौन प्यारा
कैसे यह पहचान करे
एक चेहरे पर कई-कई चेहरे
कैसे कोई पहचान करे

वही सुखी इस दुनिया में
जो पहने झूठ का मुखौटा
सच्ची सूरत वाले को तो
पग-पग पर मिलता है धोखा

मानवता का पहन मुखौटा
हैवानियत के काम करें
इंसानों के बीच इन इंसानों की 
इंसानियत भला क्या पहचान करे

गिरगिट जैसी सीरत इनकी
नीयत के पीछे खोट छुपी
असली सूरत जाने न कोई
भोले सूरत में बुराई छुपी

सच्चाई जो समझ सके
ऐसी नज़र कहाँ से आए
चेहरे के पीछे चेहरों का
जो राज उजागर कर जाए
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, May 13, 2019

बादल की आँख-मिचौली

एक बादल का टुकड़ा
खेलता आँख-मिचौली
कोशिश करता रहा
सूरज को ढकने की
फिर चुपचाप चल दिया
हवाओं के साथ जा पंहुचा
घटाओं से घुलने-मिलने
बरसना चाहे पर बरसता नहीं
धरा की तपन पर तरस खाता नहीं 
मन में आशा को जगाए
कभी उड़ जाए फिर लौट आए
शरारती बच्चे की तरह
लुका-छिपी का खेल दिखाए
आसमान में लगाए जमघट
कभी दामिनी से लड़कर
कभी राह से भटककर 
होकर व्याकुल लगता बरसने
फिर चल देता कोई राह पकड़
आसमान का आँचल छोड़
आँखों में सपने देकर
शायद फिर लौट आए बादल
इस बार संग अपने बारिश लेकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, May 11, 2019

माँ तुम हो महान

क्या लिखूँ कैसे लिखूँ
कैसे तुझको शब्दों में रचूँ
तुम खुद पूरा संसार हो
तेरा क्या मैं गुणगान करूँ

बेटी बनी पत्नी बनी
हम सब की जननी बनी
दादी-नानी बनकर तूने
रिश्तों की रचना करी

तेरे होने से ही हम है
तेरे दम से यह जीवन है
अनुभवों की तुम खान हो
माँ तुम हो बहुत महान हो

हँसना बोलना चलना सीखा
मुश्किलों से लड़ना सीखा
जीवन की प्रथम पाठशाला
ऊँच-नीच दुनिया की सीखी

दूर भले ही तू मुझसे रहती
दिल में मेरे बस तू ही रहती
जब तक करूँ न तुमसे बात
दिल में हरदम बेचैनी रहती

याद आए हरदम तेरा आँचल
खनकती हुई हाथों की चूड़ियाँ
याद आती है पायल की रुनझुन
माँ तेरे बिन लगता अकेलापन

सुन लेती हूँ तेरी आवाज़
लगता है जैसे हो मेरे पास
कुछ और ना मैं माँगू रब से
तेरा सदा सिर पे हाथ रहे

संस्कार अनुभव जो तुमने दिए
उससे ही यह जीवन सजे
यही सीख में आगे बढ़ाती
तेरी तरह ही रिश्तों को सजाती

फ़िर भी न बन पाई तेरे जैसी
रह जाती हरदम कोई कमी-सी
कैसे कर लेती हो तुम इतना सब
तभी तो माँ तुम हो सबसे हटकर
***अनुराधा चौहान***

मेरी माँ

तुमसे ही मेरा जहान माँ
तुम ही मेरी भगवान
बड़ी ही प्यारी भोली-भाली
मेरे चेहरे की मुस्कान है 
उँगली पकड़ कर चलना सिखाया
परिस्थितियों से लड़ना सिखाया
आँचल में तेरे नाजों से पली
तेरे दम से ही है मेरी हँसी
संस्कारों का देकर खजाना
जीवन का हर पाठ सिखाया
मेरी आँखों से जो छलके आँसू
तो तू तड़पकर रो देती है
मुस्कुराहट पर मेरी लेती बलाएं
खुशियों से झोली भरती है
रख लेती दिल पर पत्थर
जब बेटी को विदा करती है
रखना सबकी खुशियों का ख्याल
सीख सदा यही तुमने दी
कोशिश मेरी सदा यही रहती
तेरे पदचिन्हों पर ही में चलूँ
जो संस्कार तूने मुझे दिए हैं
वही धरोहर बेटी को भी दूँ
जब भी कोई मुश्किल आती
तुम साया बनकर रही बचाती
माँ बनकर मैंने तुझको जाना
कितना करती माँ बलिदान यह माना
सदा रहूँगी तेरी ऋणी
तुझसे ही है यह ज़िंदगी
बस यही दुआ है उस रब से
तू ही माँ बने मेरी हर जनम में
झोली में तेरी रहें सदा खुशियां
बनी रहूँ मैं तेरी छोटी-सी गुड़िया
***अनुराधा चौहान***

पत्थर की किस्मत

पत्थर था वो बेकार-सा
राह में खाता ठोकरें
व्यथित होता रहा
अपनी दुर्दशा देखकर
पड़ा हाथ मूर्तिकार के
छेनी,हथौड़ी की चोट से
होता रहा दिन-रात छलनी
सोचता भला था मैं वहीं
रास्ते का पत्थर बना 
अब गढ़ा जा रहा हूँ
मैं न जाने किस रूप में
टूट-टूट बिखरता
छोटे-छोटे स्वरूप में
हुआ सृजन सुंदर बड़ा
रूप निखरा पत्थर का
मिलने लगा स्पर्श 
मुझको कोमल हाथों का
तकलीफों का परिणाम मिला
मन को बड़ा आराम मिला
तारीफ़ मिली इस रूप की
चोट सह-सहकर ही सही
रूप ही तो निखरा मेरा
हूँ तो मैं पत्थर वही
किस्मत के खेल देखो
जो मारते रहे ठोकर मुझे
चरणों में शीश झुकाकर
सब करने लगे नमन मुझे
एहसास हुआ मुझे दिया है
ईश्वर का कोई सुंदर रूप
आज़ देखो मुझ पत्थर पर
सब चढ़ा रहे हैं कोमल फूल
***अनुराधा चौहान***

Thursday, May 9, 2019

अस्तित्व नारी का

बेटी बनकर पैदा होती
ममता दुलार भी पाती
शिक्षा का हक़ भी पाती
पर जीती है बंधन में बंधी 
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
उन्नति के शिखर पर
सदा रहती अग्रसर
पर कहीं अंदर ही अंदर
अपने वज़ूद को ढूंँढती
पत्नी बनकर आती
पति की ज़रूरतें पूरी कर
नौकरी के साथ घर को सँभाले
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
माँ बनकर ममता लुटाए
खुद को भूलकर बच्चों को सँभाले
जागे रातभर उनकी तकलीफ़ पर
सुबह होते ही जुट जाए फ़िर से काम पर
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुजरते वक़्त के साथ-साथ
बुढ़ी हो जाती है नज़र
सहती अवहेलना बिस्तर पर पड़ी
ज़िंदगी गुज़ारी जिन रिश्तों को संवारते
वही अब उसके वज़ूद को नकारते
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
गुज़र जाती ज़िंदगी
दूसरों को खुश करते-करते
फ़िर भी पराएपन का एहसास लिए
अपने वज़ूद को ढूंँढती
क्योंकि अस्तित्व नारी का है
यह कोई भुला ना पाए
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, May 8, 2019

गुलमोहर की व्यथा

गुलमोहर तुम क्यों नहीं हँसते
क्यों नहीं खिलते नवपुष्प लिए
इतराते थे कभी यौवन पर
शरमा उठते थे सुर्ख फूल लिए
कर श्रृंगार सुर्ख लाल फूलों से
सबके मन को लुभाते थे
खड़े आज भी तुम वैसे ही हो
बस लगते थोड़े मुरझाए हो
बस हरी-हरी फुगनियों ने
श्रृंगार अधूरा छोड़ दिया
शायद हम इंसानी करतुतों से
कलियों ने खिलना छोड़ दिया
बरसों से एक ही भाव लिए
बिन फूलों का श्रृंगार किए
क्यों बदले हैं तेवर तेरे
नहीं खिलते अब फूल घनेरे
किस बात की व्याकुलता लिए
खड़े मखमली छाँव लिए
हरियाली का साथ न छोड़ा
फूलों से ही क्यों नाता तोड़ा
क्या क्रौध है किसी बात का
या दर्द किसी आघात का
या सीमेंट रेती के बोझ तले
दर्द से कराहती तेरी जड़ें
इसलिए कुम्लाहाए हो
तुम अपनी व्यथा छुपाए हो
खिलता मुस्कुराता यौवन तेरा
जिस मिट्टी में फला-फूला
दबी गई वो सीमेंट रेती में
इसलिए गुलमोहर में फूल न खिला
***अनुराधा चौहान***

Monday, May 6, 2019

शक्ति

शक्ति
 विश्वास की
प्यार के एहसास की
हमें नहीं झुकने देती
ज़िद के आगे तूफ़ान की
शक्ति 
परिवार की
एकता के आधार की
कभी नहीं बहने देती
नफ़रत के सैलाब में
शक्ति 
शिक्षा की
हमारे आत्मज्ञान की
कभी नहीं हटने देती
हमको अपने ईमान से
शक्ति 
मानव धर्म की
सबसे अलग रखती
मिट जाए भले तन
दिलों में जिंदा रखती
शक्ति 
मित्रता की
बनती हमेशा ढाल
धूप हो या बारिश
बनकर रहती साया साथ
शक्ति 
धर्म की
सबको जोड़ती
जब होता दुरुपयोग
तो समाज को तोड़ती
शक्ति 
प्यार की
सबको गले लगाए
पिघलाए पत्थर दिल भी
मोम-सा नरम बनाए
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, May 4, 2019

उड़ने दो चहकने दो


सुबह-सवेरे छोड़ बसेरा
ढूंढते फ़िरे अन्न का दाना
लौटकर आए अपने ठिकाने
नहीं मिले उनको आशियाने
ढूँढते आशियाने के निशान
उदास हो व्याकुल नयन
मानव कर गया अपना काम
पेड़ का मिटा नामोनिशान
करता प्रकृति के सीने पर प्रहार
ज़िंदगी को मानव रहा है हार
वृक्ष बिना धरती आग उगलेगी
कैसे फ़िर शीतल हवा बहेगी
सीने पर लेकर जख्मों के निशान
मानव कृत्य से हारी धरा
छिनते आशियाने मरते परिंदे
मूक जीव यह मानवीय कहर से
कहीं बिगड़ न जाए यह संतुलन
मिट न जाए कहीं परिंदों का जीवन
मत काटो वृक्ष अब रुक जाओ
मत धरा को जीवन‌हीन बनाओ
उड़ने दो चहकने दो
पक्षियों के पेड़ों को रहने दो
हरियाली की ओढ़ कर चादर
सजने दो इस धरती को
***अनुराधा चौहान***

Friday, May 3, 2019

फानी की तबाही (पूरी निष्ठा से)


बहुत कोशिश की इंसानों ने
बचा ले तबाही 
प्रकृति के कहर से
फानी आया पूरी निष्ठा से
मचाकर तबाही 
अपना रौद्र रूप दिखाया
तिनके की तरह उड़ते
पेड़,घर,छत और दीवारें
हम कितने भी महल बना लें
बस यहीं हम प्रकृति के क्रौध से हारे
मत छेड़िए प्रकृति का संतुलन
देखिए एक बार फ़िर से
उसके क्रोध की झलक 
बचालो प्रकृति की हरियाली
वरना मिट जाओगे पल भर में
यही असंतुलन प्रकृति का
बन रहा प्रलय का कारण
बदलते रूप मौसम के
कभी भूकंप बनकर
कभी आफ़त बनकर
लीलते ज़िंदगियों को पल भर में
फ़िर भी लगे हुए हम समय
पूरी निष्ठा से तोड़ते पहाड़
पाट रहे नदी के तट
मलीन करते नदियों को
फेंक कर कूड़ा-करकट
हमारी गंदगी का भार लेकर
बहती जाए सागर तट तक
झेल मलीनता सागर भी
मचा रहा हाहाकार
प्रकृति देती फ़िर भी जीवनदान
पर हम जानकर भी नहीं रहे मान
तब क्रौध में आकर 
दिखाती प्रलय की एक झलक
मानव कर रहा खुद प्रकृति का अंत
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, May 2, 2019

स्याही की परछाई

लिख देते हैं दिल का हाल
हम स्याही में डूबकर
एक ही तो हमदर्द है यह
यह हमारे दुःख दर्द की
दर्द लिखो आँसू लिखो
या इबादत प्यार की
शहनाई की गूँज लिखो
ख़ाली दिल का हाल लिखो
या मुरादें महबूब के लिए
खुद के लिए तन्हाई लिखो
हमराज मेरी बस मेरी कलम
भरने खालीपन कागज का
डूब जाती स्याही में दर्द से
लिखने ग़म और तन्हाई
बनाकर स्याही को परछाई
ख़ुशी और ग़म के अहसास 
लिख देती ज़िंदगी कागज़ पर
लगाकर गले स्याही को
चल देती कलम तड़पकर
दिल की बनकर राजदार
कोरे कागज पर
प्रिय के संदेशे बनकर
कभी खुशियों के गीत बनकर
तो कभी दर्द भरे नगमे लिखकर
एक स्याही ही तो है जो
बन जाती हमदर्द हमेशा 
हमारे अपने सुख-दुख की
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, May 1, 2019

आज मजदूर दिवस है

मजदूर हैं पर नहीं मजबूर
मेहनत से करते ग़मों को दूर
सर्दी,गर्मी या बरसात में
दिखता उनको काम ही काम
हमारे सपनों को देकर आकार
सुंदर सुंदर महलों की
श्रम से नयी तस्वीर बनाते
गिट्टी पत्थर सिर पर ढोकर
श्रम से बदलते अपनी किस्मत
करते भविष्य को उज्जवल
बदलते देश की तस्वीर
योगदान इनका सबसे बड़ा
यही हैं असली कर्मशील
बहाते अपना खून-पसीना 
होकर यह बड़े ही धीर
फ़िर भी गुमनाम होकर जीते
सिर पर अपने ईंटें ढोते
नहीं मिलता इनको कोई इनाम 
नहीं रखता इन्हे कोई भी याद
कभी नहीं बदले इनकी किस्मत
सहनी पड़ती सदा ही जिल्लत
मंहगाई की मार भी सहते
रोज रात के आगोश में
भविष्य के नये सपने बुनते
सुबह मिलाकर गिट्टी गारे में
अपने सपने भी दीवारों में चुनते
यही उनकी असली किस्मत है
एक दिन उनके परिश्रम को याद करो
क्योंकि आज मजदूर दिवस है
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार