काँधे पर अनगिनत
फरमाइशों का बोझ
चिंता में तिल-तिल जलते
और धुआँ होती ख्वाहिशें
दफ़न हो जाते सपने
दिन-रात यही सोच-सोचकर
कैसे हो सबके पूरे सपने
पिता के लिए नई लाठी
माँ का टूटा चश्मा
गुड़िया बैठी दरवाजे पर
आज आएगा नया बस्ता
एक नया पैबंद झलक उठा
मुस्काती पत्नी की साड़ी में
दिन भर भीगता रहा यह सोच
छतरी लूँगा अबकी बारिश में
खत्म हो गई मुन्ने की दवाई
कमर तोड़ रही यह महंगाई
हर बार होती यही कोशिश
इस बार होंगे सपने पूरे
समस्या रहती वहीं के वहीं
मिलता नहीं समाधान कोई
अरमान हर बार जल जाते
छुप जाते आँसू भी धुएं में
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
मार्मिक यथार्थ सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteमार्मिक यथार्थ की गूंज इस रचना में सुनाई पड़ती है! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद दी🙏🌹
Deleteमर्मस्पर्शी सृजन अनुराधा जी ।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteमानना पड़ेगा आपकी लेखनी को...शब्द आपके किन्तु बातें सबके मन की...बहुत बहुत बधाई|
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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