सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती
पहाड़ तुम जो काटते
नदी के तट को पाटते
मकां जो तुम बना रहे
अपनी चिता सजा रहे
यह इमारतें बड़ी बड़ी
शुद्ध हवाएं रोक रही
ये गाड़ियाँ बड़ी-बड़ी
जहर साँस है घोलती
जो पेड़ तुम हो काटते
हो संतुलन बिगाड़ते
जल धरा का सूख रहा
फिर भी नहीं हो मानते
निकल नालों से गंदगी
नदियों में जा मिल रही
आज वो दलदल बनी
विनाश गाथा कह रही
संभल चलो मनुज जरा
दुःख धरा का है बढ़ा
क्रोध का ये देख रूप
समस्त विश्व डर उठा
सुनो धरा कुछ बोलती
मनुज के कान खोलती
सँभल-सँभल चलो जरा
विनाश पथ ये डोलती
*अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️*
वाहः बेहतरीन
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय लोकेश जी
Deleteसच है कि जागना होगा अभी नहीं चेते तो कब ... जब सब बर्बाद हो जाएगा तब ... अच्छी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय दिगंबर जी
Deleteसंदेश देती, मानव को चेताती हुई सुंदर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteइक जलजला तब आयेगा
ReplyDeleteयह विनाश तुम रोक लो
सब तबाह हो जाएगा
संभल जाओ संभल जाओ.... फिर भी हम सब उसे अनसुना कर देते हैं ... सुंदर कविता
बहुत बहुत धन्यवाद जी
Deleteशानदार अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतिभा जी
Deleteसच...अब भी नहीं तो कब ....उम्दा
ReplyDeleteधन्यवाद रेवा जी
Deleteसार्थक सन्देश देती रचना
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