मेटती सुख क्यारियों से
व्याधियाँ लेकर कुदाली।
क्रोध में फुफकार भरती
जूझती हर एक डाली।
आज बंजर सी धरा कर
कष्ट के सब बीज बोते।
मारती लू जब थपेड़े
चैन के मधुमास खोते।
दंड कर्मों का दिलाने
काल तब करता दलाली।
मेटती सुख....
नीलिमा धूमिल हुई नभ
विष धुआँ आकार लेता।
रोग का फिर रूप देकर
विष वही उपहार देता।
काटते बोया हुआ सब
भाग्य के बन आज माली।
मेटती सुख....
व्याधियाँ नव रूप लेकर
बेल सी लिपती पड़ी हैं।
हाड़ की गठरी विजय का
युद्ध अंतिम फिर लड़ी है।
श्वास सट्टा हार बैठी
बोलती विधना निराली।
मेटती सुख....
©® अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
बहुत सुंदरता से सब कुछ समेट लिया । व्याधियों की कुदाल सुख की क्यारियों को मिटा देती है । हमारे ही कर्मों से प्रदूषण अलग दुखदायी हो रहा है ।।विचारणीय रचना ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना रविवार १२ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी।
Deleteसचमुच व्याधियों के निरंतर आघात से सट्टा हारने की ही अनुभूति होती है । योग का बल ही ठेल सके अब ।
ReplyDeleteसतर्कता ही निदान है ।
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर नव गीत सखी! सामायिक परिस्थितियों की भयावहता दिखाता।
ReplyDeleteनवल व्यंजनाएं।
हार्दिक आभार सखी।
Deleteजैसी करनी वैसी भरनी ! प्रकृति हमारे कुकर्मों का हमको दंड तो देगी ही.
ReplyDeleteजी हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteबहुत सुन्दर ! इस गीत से थकाऊ, उबाऊ, लुभाऊ आदि की पीड़ा मिट गयी.
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय ।
Deleteबहुत सुंदर, अनुपम सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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