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Friday, June 28, 2019

परिवर्तन की लहर

परिवर्तन
की लहर में
हर गाँव,गली,शहर
हो रहे नये
अविष्कार
ज्ञान के प्रकाश से
रच रहे नये कीर्तिमान

परिवर्तन
की लहर में
ऊँचाईयों को छूता
भारत
मंगल तक
पहूँच गए यान
मानव के यह काम महान

परिवर्तन
की लहर में
दम तोड़ती शराफ़त
भ्रष्ट्राचारियों का
बढ़ रहा है साम्राज्य
सच्चाई मरती
जनता का जीना दुश्वार

परिवर्तन
की लहर में
रिश्तों पर हुआ असर
मरते रिश्ते
सिमटते परिवार
जरा-सी बात पर होते तलाक
कम हो रहा आपसी प्यार

परिवर्तन
की लहर में
चढ़ती संस्कारों की बलि
पाश्चात्य संस्कृति 
पाँव पसार रही
घर के संस्कारों को बाहर निकाल

परिवर्तन
की लहर में
इंसानियत पर हावी
हैवानियत
मानवता भूल हैवान बना
इंसान के बढ़ते कुकर्म
मासूम कलियों के लेते प्राण
***अनुराधा चौहान***

Thursday, June 27, 2019

झूमकर बरसे बदरा

मिटी वसुधा की प्यास
झूमकर बरसे बदरा
थिरकती बूँदें धरती पर
तन को देती शीतलता

भीगे फुहारों में तन-मन
बूँदों का धरती पे नर्तन
बारिश की झूमती हवाओं में
मन झूमे घनी घटाओं में

जलते आषाढ़ अब निकल गए
सावन झर-झर बरस उठे
झुलसाती तपिश मिटने लगी
धरती पे हरियाली खिलने लगी

कुछ यादें लेकर सावन की
कुछ बातें ले मनभावन-सी
कहीं मन में छुपी कसक बरस गई
विरहन भी दर्द में तड़प गई

घनघोर घटाओं का उठता शोर
मेघों को देख नाच उठे मोर
झूमती पुरवा भी लहराई
संग मिट्टी की सौंधी महक लाई

आगाज़ हुआ सावन आया
जनजीवन भीगकर हर्षाया
 चपला चमके, तड़के, गरजे
झूम झूमकर बदरा बरसे

***अनुराधा चौहान***

Wednesday, June 26, 2019

बारिश की बूँदें

 शोर शराबे से दूर
कुछ पल सुकून के ढूँढ
सुंदर वादियों का
सुकून भरा साथ
उमड़ते बादलों को
शीतल अहसास
स्वर्ग जैसा दृश्य
उतरा तब धरती पर
जब तन को छूकर
निकला बादलों का सैलाब 
रिमझिम गिरती
बारिश की बूँदें
चेहरे पर खेलती
कुछ पल रुकती 
फिर ढुलक जाती
धरती की गोद में जा छुपती
बूँदों की थिरकन
मन को हर्षाती
हवाओं के संग झूमकर
बारिश बरस जाती
***अनुराधा चौहान***


Tuesday, June 25, 2019

मोबाइल की लीला

मोबाइल इक विकट बीमारी
जिसमें लिपटी दुनिया सारी
गप्पे-शप्पे भूल गए अब
शतरंज,कैरम छूट गए सब
हँसी-ठिठोली बन गई सपना
मोबाइल ही अब सबका अपना
दादा-दादी बोर हैं लगते
मम्मी-पापा खुद फोन में जकड़े
बच्चों की तो हाई-फाई बात
आधुनिकता का है यह कमाल
जो कुछ भी,कभी भी हो ढूँढना 
मोबाइल में है पूरी दुनिया
बचपन भूला बाहर खेलना
मोबाइल से अच्छा कोई खेल ना
मोटे-मोटे चश्में पहने
इयरफोन कानों में लटके
मोबाइल ने दिए यह गहने
कहानी-किस्से दम तोड़ रहे
अंताक्षरी को सब भूल गए
जिसके हाथ देखो मोबाइल
लुका-छिपी चोर-सिपाही
बच्चों के अब खेल नहीं है
चंपक,नंदन,लोटपोट जो
हम सबकी कॉमिक्स थी प्यारी
बच्चों को तो मोबाइल गेम की
लगी हुई है बड़ी बीमारी
सुविधाजनक है फोन बड़ा
पर उतना ही गहरा इसका नशा
एक बार जो फसा चंगुल में
फिर कभी-भी न बाहर निकल सका
मोबाइल की लीला अपरम्पार
हर कोई देखो बना है गुलाम
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, June 22, 2019

अरमानों की पालकी

दिल है कि मानता नहीं
बुनता रहता ताने-बाने
कभी प्रीत भरे
कभी रीते मन के अफसाने
बिखरी किर्चे चुनता रहता
सहेजता उन्हें बार-बार
टूटकर बिखरता रहता
दिल है कि मानता नहीं
अरमानों की पालकी में बैठ
प्रिय का इंतज़ार करता
सुनहरे स्वप्नों में खोकर
नवजीवन के सपने बुनता
उम्मीदों के पंख लगाकर
नीले अम्बर पर उड़ता
आशा की डोली में बैठकर
बीते लम्हों को याद में
मन ही मन बिसूरता रहता
दिल है कि मानता नहीं
जख़्म सहकर भी हँसता
झील की गहराई में उभरा
अक्स देख प्रिय का
चुपके-चुपके मुस्कुराने लगता
रात की पालकी में सवार हो
कहीं अँधेरे में जा छुपता
दिल है कि मानता ही नहीं
अरमानों की पालकी में बैठ
नवजीवन के सपने बुनता
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, June 11, 2019

इंसानियत को भूलकर

ढह गया अरमानों का घर
अब फड़फड़ाने से क्या फ़ायदा
घर के चिरागों ने आग लगाई
मिट गई जो इज्जत कमाई
हाल,चाल हाव,भाव
अगर समय से परखते
सही ग़लत की कुछ सीख दे लेते
बेटों के मोह में अँधी थी आँखें
देखते तो भी क्या सीख देते
सीख तो घर से ही सीखे
घर के पुरुषों ने घर की
स्त्री की नहीं की कदर
इंसानियत को ताक पर रखकर
हरदम उनका उत्पीड़न किया
बाहर तिरछी नज़र कर व्यंग्य कसे
ढहना ही था उस घर को एक दिन 
संस्कार बिना खोखली थी उसकी नींव
सत्कर्म से भटके हुए थे लोग
इंसानियत को भूलकर
दुष्कर्म का मार्ग पकड़कर
करने लगे ज़िंदगियाँ तबाह
ना किसी की माँ का दर्द समझा 
न किसी की बहन, बेटी की पीड़ा
करते रहे माँ की कोख कलंकित
पुरुष होने का दंभ भरते रहे
यह मानसिक रोगियों को 
डर-भय नहीं किसी का नशे में चूर
इंसानियत के वेश में हैवानियत के दूत
सरकार हमारी न जाने क्यों बैठी है चुप
होती रहेंगी यूँ ही ज़िंदगियाँ बरबाद
हम लोग बेबस‌ होकर यह सब देखते रहेंगे
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, June 5, 2019

बूँद का अस्तित्व

 
बूँद का अस्तित्व छोटा मगर
काम बड़े कर जातीं
वर्षा की बूँदे
संग्रहित होकर
पोखर,नदियों को भरती हुई
जाकर मिलती सागर के जल में
सृजन करती धरती पर जीवन
प्रकृति को हरियाली देतीं
ओस की बूँदें
फूलों को ताजगी देती
धूप की छुअन से पिघलकर
दूर्वा में समाकर
पैरों को शीतल रखतीं
मन को सुखद का अहसास देतीं
एक बूँद रक्त की
सृजन करती गर्भ में जीवन का
सृजन करती सृष्टि का
कभी-कभी रक्त की बूँदे
बनती कारण संहार का 
आँसुओं की बूँदे
सुख में निकले तो आशीष देती
दुःख और क्रौध के आवेश में
निकलकर बहती
तो प्रलय का संकेत देती
घोर विपदा का कारण बनती
बूँदों का अस्तित्व छोटा मगर
काम बड़े कर जातीं
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

हौसलों की उड़ान

हटा कर अँधेरे का पर्दा
उजाले का दामन थामकर
निकल पड़ी नयी राह पर
अपनी खुशियों की चाह लिए
कब तक पर्दे में दुःख सहती 
खुद को टूटने-बिखरने देती 
क्या मिला अब तक उसे
पर्दे के बँधन में बँधकर
रिवाजों से नाता जोड़कर 
माँ,बेटी,बहन,पत्नी बनकर
पूरी निष्ठा से जीती रही
कष्ट सहती रही
रिश्तों को स्नेह से सँवारती
हरदम तिरस्कार सहती रही
फिर क्यों जिये डर-डरकर
मन को मारे मर-मरकर
हटा दिया डर का पर्दा 
कर गर्व से सिर ऊँचा 
हौसलों की उड़ान भरने
नये कीर्तिमान रचने लगी
फिर भी भूली नहीं कर्त्तव्यों को
स्नेह प्रेम से सींचकर
नारी बन ममता की मूरत
रिश्तों को सहेजती है अब भी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, June 4, 2019

राधा बावरी

जब भी देखूँ अपना मुखड़ा
छवि देखूँ में श्याम की
मनमंदिर में तुम्ही बसे हो
हुई दीवानी तेरे नाम की।

कानों में हरपल गूँज रहे
सखियों के तीखे ताने 
मैं तो भूली सुध-बुध मेरी
सपनों के बुनती बाने।

यमुना तट पे बैठ निहारूँ
छवि सुंदर घनश्याम की
बंशीवट पे रास रचाऊँ
बेला हो सुबह शाम की।

निंदिया बैरन सोने न देती
मधुवन सूना सा लगता
बिन तेरे बंशीवट सूना
समय तीव्र गति से भगता।

श्याम के रंग में रंगी हूँ ऐसे
जित देखूँ दिखे श्याम
सुन ललिता एक बात बता
कहाँ मिलेगा आठो याम।

कोई कहे राधा बावरी
इत उत पागल सी दौड़े
मुरलीधर ब्रज छोड़ गए
हम पत्थर से सिर फोड़े।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Monday, June 3, 2019

बारिश का इंतज़ार

हर दिल में बस एक ही दुआ
वर्षा ऋतु आए गर्मी मिटाएं
घनघोर घटाएँ ठंडी हवाएँ
झूमकर बरसे काली घटाएँ
तपन मिटे जीवन हँसे
प्यास बुझे धरती खिले
हो बरसात अबकी ऐसी
खुशियाँ झलक उठे कृषकों की
झूम उठे खेतों में फसलें
खुशियों की हो बारिश ऐसी
मेघ मल्हार गाएँ सब झूमके
दामिनी तड़के बहुत धूम से
झूमे लहराएँ तरुवर सारे
कोई मनोहर राग सुनादे
वसुंधरा उदास-सी बैठी है तैयार
बरखा बहार का करने इंतज़ार
मेघराज आएँ प्रेम रस बरसाएँ
धानी चुनरिया धरा को पहनाएँ
संदेशे लाते हैं बादल बार-बार
कभी धूप कभी छाँव
कभी झूमती हवाएँ
वर्षा के आगमन की 
आकर झलकियाँ दिखाते
आसमां में टिकी निगाहें
हर दिल में आस जगी है
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार